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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
10. व्रज में क्रमशः छहों ऋतुओं का आगमन और श्रीकृष्ण की वर्षगाँठ
उसी समय ‘कुहू-कुहू’ करती हुई कोकिल पुकार उठी। किंतु किसी ने भी यह ‘कुहू-कुहू’ नहीं सुना। सबके कर्णरन्ध्रों में गूँज रहा था- मा मा ता ता, मा मा ता ता। वसन्त के कानों में भी केवल मा मा ता ता झंकृत हो रहा था। वसन्त ने अनुभव किया-मेरे अधिकृत कोकिलकण्ठ में ऐसी मधुधारा बहाने की शक्ति नहीं। वह यह सोच ही रहा था कि श्रीकृष्ण-अंगों को छूकर आये हुए पवन ने उसके नासापुटों में एक विलक्षण सुरभि भद दी। फिर तो वसन्त आनन्दमत्त हो गया। आनन्दमत्त हुआ वह श्रीकृष्ण की, श्रीकृष्ण की व्रजपुरी की परिक्रमा करने लगा। यद्यपि श्रीकृष्णांग-सौरभ की तुलना में समस्त वसन्त श्री अत्यन्त तुच्छ नगण्य बन चुकी थी, फिर भी वह (वसन्त) माधवी, बकुल आदि पुष्पों का पराग पवन को देता एवं कह देता-ले जाओ; इन्हें श्रीकृष्ण के अंगों से छुला देना, इनका अस्तित्व सफल हो जायगा। एक दिन प्रातः समीर के हाथ चम्पकपराग की भेंट चढ़ाकर वह श्रीकृष्ण को देखने गया था। उस सम उनकी एक नयी लीला उसने देखी-तुमुल हर्षध्वनि से समग्र नन्दप्रांगण निनादित है, गोपिकाएँ ताली पीट रही हैं, श्रीकृष्ण किलकते हुए आँगन में घुटुरूँ चल रहे हैं, कुछ व्रजसुन्दरियाँ व्रजरानी से कह रही हैं-
तब से वसन्त प्रतिदिन ही श्रीकृष्ण की इस लीला का दर्शन करता। किंतु अब उसका अधिकार समाप्त हो रहा था। द्वार पर ग्रीष्म प्रतीक्षा कर रहा था। उदास होकर वसन्त ने सोचा-आह! पुनः मेरा अधिकार आने पर भी श्रीकृष्ण की यह रिंगणलीला कहाँ देखने को मिलेगी? ठीक इसी समय श्रीकृष्ण के मुख-कमल पर मन्द मुस्कान छा गयी। बस, वसन्त को मानो उपाय सूझ गया और वह अपनी समस्त सम्पत्ति लिये हुए ही उस मुस्कान में मिलकर तन्मय हो गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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