नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. वृन्दादेवी-दाऊ आये
वृन्दा, तुम यह पूछती हो? तुम श्याम का स्वभाव जानती तो हो।' ये विशालबाहु बोले- 'वह द्वारिका में अपने अन्तःपुर में रहता भी तुम्हारे ही समीप है। उसके मानस में तुम्हारा स्मरण और मुख पर प्रत्येक विषय में व्रज की चर्चा। कन्हाई समान रूप से सर्वत्र- यादवों की राज-सभा में और अपने अन्तःपुर में भी ब्रज के प्रेम का ही तो गायक है। वह व्रज का- तुम्हारा है। वह तुम्हारे समीप से कभी कहीं गया?' यह उद्धव तो नहीं थे कि हम उपालम्भ देतीं; उपहास करतीं अथवा उत्तर देतीं। ये हमारे हृदयधन के समान अग्रज- उनसे अभिन्न। ऐसी उत्कण्ठा हम सबके हृदय में उठ रही थी कि ये ऐसे ही अपनी सुखा-स्यन्दिनी वाणी में बोलते ही रहें और हम सब ऐसी ही नीरव, निस्पन्द, शान्त, अनन्तकाल तक श्रवण करती रहें। दाऊ आये- वसन्त के दो मास मधु-माधव रहे व्रज में। मेरी स्वामिनी तक को वियोग-विस्मृत हो गया। अग्रज आये तो अनुज के अदृश्य रहने का भ्रम विदा हो गया। विश्वास हो गया कि ये नील-वसन स्वर्णगौर, सर्वाचार्य संकर्षण यहाँ हैं तो इनसे पृथक इनके नवजलधर-सुन्दर, वनमाली, पीताम्बर-परिधान मयूरमुकुटी मनमोहन अनुज रह नहीं सकते। मुझे वृन्दावन की अधिदेवता होने के नाते सबसे अधिक चिन्ता थी इन नव-कुमारियों की जिनका जन्म यहाँ अक्रूर के उस आगमन के पश्चात् हुआ। देवता होने के नाते जानती हूँ कि नाग-कुमारियों ने अपने आराध्य भगवान अनन्त का पाद-स्पर्श प्राप्त करने के लिये पृथ्वी पर व्रज में जन्म लिया है। देवताओं की अमरपुरी में तो मानव के छः महीने का दिन होता भी है; किंतु अधःलोकों में तो रात्रि-दिन का भेद ही नहीं होता। रसातल और पाताल में तो महाकाय नागों की शिरःमणियाँ सभी समय प्रकाशित रहती हैं। अतः वहाँ की भोली कुमारियों को पृथ्वी पर जन्म लेने में मानव के दस-ग्यारह वर्षों का विलम्ब कुछ पलों के समान ही तो था। प्रमाद उन लोकों में दूषण की गण्ना में नहीं है; किंतु इस किञ्चित प्रमाद के कारण ये अबोध नाग-कुमारियाँ अपने आराध्य के प्रमाद से ही वञ्चिता हो गयीं। दाऊ का व्रज में अदर्शन इनकी विपत्ति बन गया। श्रीनन्दनन्दन का नित्य सान्निध्य भले यहाँ सुलभ रहे, इन नाग-कुमारियों को नवघनसुन्दर केवल भाभी ही तो कह सकते हैं। दाऊ आये- मेरी चिन्ता मिट गयी। अब जो जन्म-जन्म से इन्ही की हैं, उनको ये परमोदार स्वतः स्वीकार कर लेंगे। इनके श्रीचरणों में तो सबको आश्रय प्राप्त हो जाता है। ये तो किसी शरणागत को अस्वीकार करते ही नहीं। यही अस्वीकार करें तो आतुर अनधिकारी अज्ञानी जीव आश्रय कहाँ पावेगा? मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा। इन अनन्त के यहाँ किसी-के लिये कभी किसी दूसरे को कुछ नहीं कहना पड़ता। अपने सहज स्वभाव के अनुसार इन्होंने उन सब कुमारियों को स्वीकार कर लिया। सबको सहचरी बना लिया। |
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