नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. वृन्दादेवी-दाऊ आये
अमृत-मन्थन के समय श्रीहरि सुधा सुरों को पिलायी तो वारुणी असुरों को दे दिया। सुर सोमपान के व्यसनी बने; किंतु अघःलोकों के अधिवासियों के लिये वारुणी आवश्यक थी। यह उनके जीवन का अंग थी। अतः नाग ही नहीं स्वयं शेष ने भी उसे स्वीकार किया। अब धरा पर जो जहाँ से आया है वहाँ का स्वभाव भी तो उसके साथ ही आवेगा। संकर्षण तथा नाग-कुमारियों को वायु में वारुणी की मादक सुरभि प्राप्त हुई तो उनके चरण स्वतः उसी की ओर चल पड़े। कादम्ब-वारुणी का स्वच्छन्द अञ्जलि में भरकर पान- रात्रि-विहार के रस को उद्दीप्त करने वाला था। वह सुरभित मधुर कादम्ब-सार किञ्चित क्रोधोद्दीपक भी है और उष्ण भी। अन्ततः कामानुज ही क्रोध है और प्रत्येक उत्तेजना में उष्णता होती ही है। वन-विहार-श्रान्त श्रीबलराम को स्नान करने की इच्छा हुई। वे जल-क्रीड़ा करना चाहते थे। उन्होंने पुकारा- 'यमुने! यहाँ आ। समीप आ यहाँ। मैं स्नान करूँगा।' कालिन्दी का संकोच मैं समझ सकती हूँ। भूमि की मर्यादा भी तो नहीं है कि सरितायें बना बाढ़ के अचानक प्रवाह-पथ परिवर्तित करें। यमुना का प्रवाह पास आता नहीं प्रतीत हुआ तो सर्वसमर्थ संकर्षण को क्रोध आ गया। स्मरण करते ही उनका ज्योतिर्मय हल हाथ में आ गया। हलाग्र भूमि में लगाकर उन्होंने खींचा कालिन्दी की धारा को और गर्जना करते बोले- 'कामचारिणी! स्वच्छन्द गतिका कालिन्दी! प्रमत्त हो गयी है तू? मेरे पुकारने पर भी आती नहीं है, इतना साहिस! मैं हलाग्र से तेरी धारा को शतधा विभक्त करके समाप्त कर दूँगा।[2] कालिन्दी का प्रवाह गिरिराज के समीप से खिंचकर वृन्दावन के समीप आ गया। यमुना साकार सशरीर प्रकट होकर पदों में प्रणत होकर बोली- 'मैं आपके अनुज की चरण-किंकरी हूँ। आपके अचिन्त्य प्रभाव को कैसे जान सकती हूँ। अनुज के सम्बन्ध से इस सेविका को क्षमा करें। कालिन्दी का प्रवाह तो सदा के लिये वृन्दावन के समीप आ गया तभी से। अपनी सहचारियों के साथ दाऊ ने स्नान किया- स्वच्छन्द जलविहार किया। यमुना ने सविनयवस्त्रा, आभरण, वनमाला, अंगराग अर्पित किया। व्रजराजकुमार के अग्रज का यह वन-विहार तो नित्य है। वे भी अपने अनुज के साथ सदा व्रज में ही तो रहते हैं। उनका अदर्शन समाप्त हुआ। दूसरों की दृष्टि में वे द्वारिका जाते हैं तो मैं क्यों उसे महत्ता दूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मदिरा
- ↑ जो हलाग्र लगाकर हस्तिनापुर उखाड़कर गंगा में डालने में समर्थ थे, वे हलाग्र से भूमि में गहरी नहरें बनाकर यमुना को सौ-दो सौ धाराओं में सहज विभक्त कर सकते थे और ये नहरें राजस्थान की रेणुका तक पहुँचा दी जातीं तो मरुधरा में इनकी धारा समाप्त हो सकती थी।
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