नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
जल में डूबकर तल में पहुँचना एकमात्र उपाय था कालिय के लिये बचने का; किंतु मूर्खतावश-क्रोधाधिक्य के कारण वह उससे भी वञ्चित हो गया। वह शिथिल तो पड़ ही चुका था। जल के थपेड़े से बचने को मस्तक झुकाया उसने तो श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्रतापूर्वक उसके मस्तक पर जा खड़े हुए। सृष्टि ने सम्भावना से परे का दृश्य देखा। सर्प के सिर पर खड़े श्यामसुन्दर ने अब तक कछनी में लगी मुरली निकाल ली और अधरों से लगाया। उनका नृत्य प्रारम्भ हो गया। कटि से घुटनों तक भीगा पीतपट चिपका है और ये सर्वकलानिधान नृत्य करने लगे हैं। इनके नृत्य-समुद्यत होते ही सुरों तथा गन्धर्वों ने अपने वाद्य सम्हाल लिये हैं। नभ से पुष्प-वृष्टि प्रारम्भ हो गयी। 'वह उठाया सर्प ने सिर!' गोपकुमार बार-बार पुकारते हैं। सब ब्रजजनों के नेत्र-प्राण हृद में लगे हैं। तुम्बरू जैसे नृत्य-संगीताचार्य भी चकित-स्तंभित हैं। चकित तो मैं देखता हूँ स्वयं भगवान भवानीनाथ को। वे भी ताण्डव करते हैं; किंतु श्रीकृष्ण का यह चित्र-ताण्डव! कभी 'ता थेई, ता थेई ताता थेई थेई' का मन्द्र और कभी 'द्रां द्रां द्रा- द्रुम द्रां द्रां' का द्रुत! इन चिद्घन के लिये कहाँ आवश्यक है कि नीचे देखें। इनके तो पद-नख भी दृगों के समान देखने में समर्थ हैं। सर्प जो फण उठाता है, इस ताण्डव ताल पाद-प्रहार करता उसी पर टूटता है। फटते जा रहे हैं कालिय के फण! रक्त की फुहारें उन फणों से फूटकर इनके चरणों को चर्चित कर रही हैं। ये लाल-लाल पद्मारुण पादतल और सर्प के मस्तक की मणियों का इन पर प्रकाश! सर्प के सिर से निकलते रक्त से इनकी जो शोभा बनी है। कालिय शिथिल पड़ता जा रहा है। कोई भी सिर उठाने में असमर्थ होता जा रहा है। वह मरणासन्न है; किंतु इनके श्रीचरणों का स्पर्श मिला उसे, धन्य है कालिय! सहसा नागवधुयें अपने पुत्रों को आगे करके जल में-से ऊपर उठीं। सबसे स्तवन प्रारम्भ कर दिया। गोप, गोपियाँ, गोपकुमार चौंके; किंतु दूर-दूर हृदय में खड़ी दयनीय लगती नागिनों को देखकर आश्वस्त हो गये। नागिनों की स्तुति क्या- 'सर्वेश्वर! आपके द्वारा दण्डित होना भी स्वामी के सौभाग्य का सूचक है। कहाँ सुलभ होता है यह सौभाग्य किसी को कि आप स्वयं उसे दण्डित करें। इन्होंने अपराध तो किया ही था।' दैत्यराज बलि केवल पा सके थे अपने मस्तक पर आपका पादस्पर्श; किंतु उन्होंने सम्पूर्ण त्रिभुवन का राज्य श्रद्धा-सहित समर्पित किया था और हमारे स्वामी को यह अकस्मात मिल गया। अब आप हम अपनी किंकिरियों पर कृपा करके हमको अपने पति का प्राण प्रदान करें। अब आपका और पाद-प्रहार हुआ तो इनके प्राण चले ही जायँगे। हम आपकी शरण हैं। |
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