नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
'नीलमणि!' मैया ने देखा हृद में भुजगभोग में मूर्च्छित अपने श्याम को और उन्मादिनी की भाँति फटे-फटे नेत्र हो गये। वह दौड़ती चली। 'मैया!' दाऊ ने दोनों हाथ फैलाकर रोका। मैया कहाँ उनकी ओर देखती है। गोपियों को उन्होंने पुकारा पूरे स्वर में- 'मैया को रोको! रोको मैया को!' 'कन्हाई को कुछ नहीं हुआ। वह अभी आता है सर्प को फेंककर। दाऊ के स्वर में जो दृढ़ आश्वासन है, उसने गोपियों को किञ्चित सावधान किया। सबने व्रजेश्वरी को पकड़ा। वे प्राणहीन की भाँति गिर पड़ीं और एकटक, स्थिर उन्मादिनी की भाँति हृद की ओर देखने लगीं। उठने, हिलने की भी शक्ति शरीर में नहीं रह गई। 'मेरे लाल!' बाबा दौड़े चले आ रहे थे। 'बाबा!' दौड़कर दाऊ ने आगे भुजायें फैलायीं तो इस तनिक से धक्के के कारण गिर पड़े और अब उठ नहीं सकते। 'तुम सब.... !' दाऊ ने सम्मुख जाकर केवल दृष्टि उठाकर देखा। बरसाने की बालिकाएँ हृद के समीप पहुँच चुकी थीं; किंतु इस दृष्टि के पड़ते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। भगवान अनन्त का यह एश्वर्य मैं देख रहा था। लगभग साढ़े छः वर्ष के दाऊ सबको रोक रहे थे- रोक लेने में सफल हो गये थे। ये न रोकते तो एक भी नहीं था जो हृद में कूदने को न दौड़ पड़ा हो। सबको ही इन्हें सम्हालना पड़ा। 'कनूँ!' हृद की ओर मुख करके अनुज को केवल पुकारा संकर्षण ने। मैं इस प्रकार का अर्थ समझता हूँ। इसमें उपालम्भ है, आदेश है, आग्रह है- 'अब क्रीड़ा बहुत हो चुकी। इस सर्प पर शयन करके तुम अपनी सनातन शय्या को अपमानित मत करो। उठो अब!' सहसा सर्प के शरीर में कम्प हुआ- वह हिला। अब तक तो वह क्रोध के आधिक्य से स्वयं फण उठाये स्तब्ध-स्थिर था। उसके भोग में लिपटे सर्वेश ने जब अपना शरीर किञ्चित स्थूल किया, सर्प को लगना ही था कि उसका देह टूटने ही वाला है। अपनी कुण्डलियाँ शीघ्रता से सीधी करके सर्प उछला और दूर कूद गया। 'सर्प ने श्याम को छोड़ दिया! कन्हाई सकुशल है!' एक साथ पुकार उठे गोप-गोपियाँ और सबमें चेतना का संचार हुआ। सब उठ खड़े हुए। पशु तथा बालक भी सचेत हुए। सब सिमट आये हृद के समीप और देखने लगे एकटक। श्रीनन्दनन्दन अब जल में तैरने लगे हैं। कालिय के साथ पैंतरे ले रहे हैं। कालिय पुनः दंशन के लिये अवसर देखता इधर से उधर घूम रहा है; किंतु ये जल के थपेड़े जो पड़ रहे हैं उसके फणों पर इनसे ही बचना कठिन हो रहा है उसे। वह अपने फणों को बचाता इधर-उधर भागने लगा है। अब कालिय बाध्य हो गया है अपनी रक्षा को। प्रत्याक्रमण तो अब श्रीकृष्णचन्द्र कर रहे हैं। उनके करों के द्वारा अजस्त्र जल के थपेड़े पड़ रहे हैं कालिय के ऊपर। |
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