विभूतियों को सुनकर क्या करोगे?
हे योगिन्! हरदम सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवन्! किन-किन भावों में आपका चिन्तन करूँ? इसलिये हे जनार्दन! आप अपनी विभूति और योग को विस्तार से फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनकर मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।।17-18।।
भगवान् बोले- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।।19।।
आपकी वे दिव्य विभूतियाँ कौन-सी हैं भगवन्?
हे गुडाकेश! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में भी मैं ही हूँ; और प्राणियों के अन्तःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ। अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान चीजों में किरणों वाला सूर्य मैं हूँ। मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा मैं हूँ। वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र, इन्द्रियों में मन और प्राणियों की चेतना (प्राणशक्ति) मैं हूँ। रुद्रों में शंकर, यक्ष-राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ। हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझ।
और आपकी कौन-सी विभूतियाँ हैं?
सेनापतियों में स्कन्द और जलाशय में समुद्र मैं हूँ। महर्षियों में भृगु, वाणियों (शब्द) एक एक अक्षर (प्रणव), सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ। सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ। घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मान।।20-27।।
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