गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 101

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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जो आपकी (सगुण-साकार रूप की) उपासना करते हैं, वे तो आपको अत्यन्त प्यारे होते हैं, अब यह बताइये कि जो आपके निर्गुण-निराकार रूप की उपासना करते हैं, वे कैसे होते हैं?
भैया! वे विवेकी होते हैं।

विवेक किसका होता है भगवन्?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का। हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’ रूप से कहे जाने वाले शरीर को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और जो इस क्षेत्र को जानता है, उसको ज्ञानीलोग ‘क्षेत्रज्ञ’ (शरीरी) कहते हैं।।1।।

उस क्षेत्रज्ञ का स्वरूप क्या है?
हे भारत! सम्पूर्ण क्षेत्रों- (शरीरो) में क्षेत्रज्ञ (शरीरी) रूप से मैं ही हूँ- ऐसा तू जान[1]

वह जानना क्या है भगवन्?
क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग है- इसको ठीक-ठीक जानना ही मेरे मत में ज्ञान है। तात्पर्य है कि क्षेत्र की संसार के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ की मेरे साथ एकता है- इसका ठीक-ठीक अनुभव करना ही मेरे मत में ज्ञान है।।2।।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के लिये कौन-सी बातें जाननी आवश्यक होती हैं?
छः बातें जाननी आवश्यक होती हैं- क्षेत्र के विषय में चार और क्षेत्रज्ञ के विषय में दो। वह ‘क्षेत्र’ जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे पैदा हुआ है तथा वह ‘क्षेत्रज्ञ’ जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप से तू मेरे से सुन।।3।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
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अध्याय 12 100
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अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153
  1. यहाँ ‘सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे जान’- ऐसा कहने का तात्पर्य है कि यह शरीर तो प्रकृति का अंश है, इसलिये तू इससे सर्वथा विमुख हो जा और तू मेरा अंश है, इसलिये तू सर्वथा मेरे सम्मुख हो जा। दूसरा तात्पर्य यह है कि तूने जहाँ क्षेत्र (शरीर) के साथ अपनी एकता स्वीकार कर रखी है, वहाँ मेरे साथ अपनी एकता स्वीकार कर ले; क्योंकि वास्तव में तेरी शरीर के साथ एकता है नहीं और मेरे साथ तेरी स्वतःसिद्ध एकता है। इसको तू जान ले।।

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