अर्जुन बोले- हे कृष्ण! कभी तो आप कर्मों के त्याग की अर्थात् सांख्ययोग की प्रशंसा करते हैं और कभी कर्मयोग की। अतः इन दोनों साधनों में से जो निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे यिे कहिये।।1।।
भगवान् बोले- सांख्ययोग और कर्मयोग-ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं। परन्तु इन दोनों में भी सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है।।2।।
कर्मयोग श्रेष्ठ क्यों है भगवन्?
हे महाबाहो! जो किसी से भी राग और द्वेष नहीं करता, वह कर्मयोगी नित्य ही संन्यासी जाननेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित होने से वह सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है।।3।।
आपने कहा कि दोनों श्रेष्ठ हैं तो क्या दोनों की फलप्राप्ति में कोई भेद नहीं है?
बेसमझलोग ही सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग फलवाले कहते हैं, पण्डित (बुद्धिमान्) लोग नहीं; क्योंकि इन दोनों में से किसी एक में भी स्थिति होने पर साधक दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जो फल सांख्ययोगी को प्राप्त होता है, वही फल कर्मयोगी को भी प्राप्त होता है। इसलिये जो सांख्ययोग और कर्मयोग को फल में एक देखता है, वही ठीक देखता है।।4-5।।
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