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और आपके कौन-से स्वरूप हैं भगवन्?
वृष्णिवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनन्जय (तू), मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य मैं हूँ। दमन करने वालों में दण्ड, विजय चाहने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों में ज्ञान मैं हूँ। और तो क्या कहूँ, सम्पूर्ण प्राणियों का बीज (कारण) मैं ही हूँ; क्योंकि हे अर्जुन! मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।।37-39।।
क्या आपने अपनी पूरी विभूतियाँ कह दीं?
नहीं परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, वह तो कवेल संक्षेप से कहा है; क्योंकि मैं अपनी विभूतियों को पूरी तरह तो कह ही नहीं सकता।।40।।
फिर भी आपकी विभूतियों की खास पहचान क्या है भगवन्?
संसार मात्र में जो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे ही तेज (योग) के किसी अंश से उत्पन्न हुई समझ। अरे भैया अर्जुन। सम्पूर्ण जगत् (अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों) को अपने किसी एक अंश में व्याप्त करके मैं तेरे सामने हाथ में लगाम और चाबुक लिये बैठा हूँ तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ, फिर तुझे इस प्रकार की बहुत बातें जानने की क्या जरूरत है?।।41-42।।
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