गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 120

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

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उत्तम पुरुष तो अन्य है, पर आप कौन हैं भगवन्?
भैया! वह उत्तम पुरुष मैं ही हूँ। मैं क्षर से तो अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में मैं पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।।18।।

आप पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हैं तो इससे मनुष्य को क्या लाभ है भगवन्?
हे भारत! जो मोहरहित भक्त मेरे को इस प्रकार पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। फिर वह सब प्रकार से केवल मेरा ही भजन करता है अर्थात् मेरे में ही लगा रहता है।।19।।

जब ऐसी ही बात है तो सब आपमें ही क्यों नहीं लग जाते भगवन्?
हे निष्पाप अर्जुन! मैंने जो बात तुम्हारे से कही है, यह अत्यन्त गोपनीय बात है। इसको जानकर मेरा भक्त ज्ञात-ज्ञातव्य, कृतकृत्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है।।20।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
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अध्याय 18 153

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