गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 27

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

Prev.png

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! आपके मत में जब (ज्ञान) बुद्धि ही श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव! आप मेरे को घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? तथा आप कभी कहते हैं- कर्म करो और कभी कहते हैं- ज्ञान का आश्रय लो। आपके इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है। इसलिये एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।।1-2।।
भगवान् बोले- हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें सांख्ययोगियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग से एक ही समबुद्धि की प्राप्ति होती है।।3।।

उस समता की प्राप्ति के लिये क्या कर्म करना जरूरी है?
हाँ, जरूरी है; क्योंकि मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि उस समता की प्राप्ति कर्मों का आरम्भ किये बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती।।4।।

कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव के परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।।5।।

Next.png

संबंधित लेख

गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः