तो फिर आपको कौन प्राप्त करता है?
जो मात्र कर्मों के होने में गुणों के सिवाय अन्य को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से अतीत अनुभव कतरा है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है तथा वह विवेकी मनुष्य देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखों से मुक्त होकर अमरता का अनुभव करता है।।19-20।।
अर्जुन बोले- हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है?
भगवान् बोले- हे पाण्डव! सत्त्वगुण की ‘प्रकाश’, रजोगुण की ‘प्रवृत्ति’ और तमोगुण की ‘मोह’- इन तीनों वृत्तियों के आनेपर वह इनसे द्वेष नहीं करता और इनके न आने पर इनकी इच्छा नहीं करता; जो उदासीन की तरह रहता है, गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- ऐसा अनुभव करते हुए अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है और स्वयं चेष्टारहित है।
गुणातीत मनुष्य के आचरण कैसे होते हैं भगवन्?
उसके आचरण समतापूर्वक होते हैं। जो धैर्यवान् मनुष्य अपने स्वरूप में निरन्तर स्थित रहता है तथा सुख-दुःख में, मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में, इन्द्रियों आदि के प्रिय-अप्रिय में, नाम की निन्दा-स्तुति में, शरीर के मान-अपमान में, शत्रु-मित्र के पक्ष में सम रहता है और जो कामना-आसक्ति को लेकर कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता, वह गुणातीत कहा जाता है।
गुणातीत होने का उपाय क्या है?
जो मनुष्य अव्यभिचारी (अनन्य) भक्तियोग से मेरा ही भजन करता है, वह इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बन जाता है।।21-26।।
भक्ति तो करे आपकी और पात्र बन जाय ब्रह्मप्राप्ति का, यह कैसे भगवन्?
भैया! ब्रह्म, अविनाशी अमृत, सनातनधर्म और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ अर्थात् ये सभी मेरे ही नाम हैं।।27।।
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