गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 97

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

बारहवाँ अध्याय

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अर्जुन बोले- अभी आपने जैसा कहा है, कई तो निरन्तर आपमें लगे रहकर आप (सगुण-साकार) की उपासना करते हैं और कई आपके अक्षर अव्यक्त-रूप (निर्गुण-निराकार) की उपासना करते हैं। उन दोनों प्रकार के उपासकों में कौन-से उपासक श्रेष्ठ हैं।।1।।

भगवान् बोले- मेरे में मन को लगाकर नित्य-निरन्तर मेरे में लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, उनको मैं सर्वश्रेष्ठ उपासक मानता हूँ।।2।।

परन्तु जो आपके अव्यक्त-रूप की उपासना करते हैं, उनको?
सब जगह समबुद्धि वाले और प्राणिमात्र के हित में रत रहने वाले जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों का संयम करके सब जगह परिपूर्ण, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, अनिर्देश्य, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं।।3-4।।

तो फिर आपकी भक्ति करने वाले श्रेष्ठ कैसे हुए भगवन्?
अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले जो मनुष्य अव्यक्त-स्वरूप की उपासना करते हैं, उनको अपने साधन में कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों को अव्यक्त की प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है। परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मेरे परायण हो गये हैं और अनन्यभाव से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, हे पार्थ! उन मेरे में लगे हुए चित्तवाले भक्तों का मैं स्वयं मृत्युरूप संसार-सागर से बहुत जल्दी उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।।5-7।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
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अध्याय 4 44
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अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
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अध्याय 16 129
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