गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 51

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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भगवान् बोले- मैंने कर्मयोग की बहुत-सी बातें बता दीं, अब मैं कर्मयोग का सार बताता हूँ। जो मनुष्य कर्मफल का अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों का आश्रय न लेकर कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है। केवल अग्नि और क्रिया का त्याग करने वाला संन्यासी और योगी नहीं है। इसलिये हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास (सांख्ययोग) कहते हैं, उसी को तू योग (कर्मयोग) समझ।।1।।

संन्यासी और योगी में महिमा किस बात की है।
संकल्पों के त्याग की; क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना अर्थात् अपने मनकी बात छोड़े बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।।2।।

योगी होने में मुख्य हेतु क्या है?
जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिये निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म करना (योगारूढ़ होने में) कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्य की शान्ति परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कारण है, अर्थात् संसार के त्याग से मिलने वाली शान्ति का उपभोग न करना परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कारण है।।3।।

उस योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण क्या हैं?
जिसकी न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्ति है तथा न अपना कोई संकल्प ही है, वह मनुष्य योगारूढ़ है।।4।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
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