गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 61

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

सातवाँ अध्याय

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जिसको आप सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं, वैसा मैं भी बन सकता हूँ क्या?
जरूर बन सकता है।

कैसे?
भगवान् बोले- हे पार्थ! तू मेरे में ही आसक्त मनवाला और मेरा ही आश्रय लेकर मेरा भजन करते हुए निःसन्देह मेरे समग्ररूप को जान जायगा। तू जिस प्रकार मेरे समग्ररूप को जानेगा, वह मेरे से सुन। उस समग्ररूप को जानने के लिये मैं तुझे विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णता से कहूँगा, जिसको जानकर फिर तेरे लिये इस मुनष्यलोक में कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा।।1-2।।

जब ऐसी बात है तो फिर सब मनुष्य आपके समग्ररूप को क्यों नहीं जान लेते?
इधर स्वतः प्रवृत्ति बहुत कम मनुष्यों की है। हजारों में से कोई एक मनुष्य अपने कल्याण के लिये यत्न करता है। उन यत्न करने वाले सिद्धों (साधकों) में भी कोई एक ही मेरे समग्ररूप को तत्त्व से जानता है।।3।।

आपका वह समग्ररूप क्या है?
हे महाबाहो! पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- इन आठ प्रकार के भेदोंवाली मेरी ‘अपरा’ (जड़) प्रकृति है। इससे सर्वथा भिन्न मेरी जीवरूपा ‘परा) (चेतन) प्रकृति है, जिसने (अहंता-ममता करके) इस संसार को धारण कर रखा है। इन अपरा और परा-दोनों प्रकृतियों के संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
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अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
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अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
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अध्याय 10 86
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अध्याय 18 153

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