आपने परमात्मा के सम्बन्ध को पहचानने की बात तो बता दी, अब यह बताइये कि प्रकृति (शरीर) से सम्बन्ध कैसे तोड़े?
सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं- ऐसा ठीक बोध होने से वह अपने में कर्तृत्व के अभाव का अनुभव करता है तथा जिस समय वह सम्पूर्ण प्राणियों के अलग-अलग भावों (शरीरों) को एक प्रकृति में ही स्थित और प्रकृति से उत्पन्न देखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। फिर उसका प्रकृति के साथ सम्बन्ध नहीं रहता।।29-30।।
ऐसा क्यों होता है?
हे कुन्तीनन्दन! यह पुरुष स्वयं अनादि और गुणरहित होने से स्वयं अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी वास्तव में न करता है और लिप्त होता है अर्थात् यह कर्ता और भोक्ता नहीं है।।31।।
यह लिप्त कैसे नहीं होता है?
जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में कभी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही यह पुरुष सब जगह परिपूर्ण होते हुए भी किसी भी शरीर में किन्चिन्मात्र भी लिप्त नहीं होता।।32।।
यह पुरुष कर्ता कैसे नहीं बनता भगवन्?
हे भारत! जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करता है, पर उसमें प्रकाशित करने का कर्तृत्व नहीं आता। ऐसे ही यह क्षेत्रज्ञ सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है, पर उसमें कर्तृत्व नहीं आता, प्रत्युत प्रकाशकमात्र ही रहता है। इस तरह जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा प्रकृति और उसके कार्य से अपने को अलग अनुभव कर लेते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।।33-34।।
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