गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 136

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास (सांख्ययोग) और त्याग (कर्मयोग) का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।।1।।
भगवान् बोले- मैं संन्यास और त्याग के विषय में अन्य दार्शनिकों के चार मत बताता हूँ।

वे चार मत कौन-से हैं महाराज?

1. कई विद्वान काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं।

2. कई सम्पूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।

3. कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिये और-

4. कई कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।।2-3।।

ये तो दार्शनिकों के चार मत हुए, पर आपका इस विषय में क्या मत है भगवन्?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! संन्यास और त्याग-इन दोनों में से पहले तू त्याग के विषय में मेरा मत सुन; क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको यदि न करते हों तो जरूर करना चाहिये। कारण कि उनमें से एक-एक कर्म मनीषियों को पवित्र करने वाला है।।4-5।।

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