गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। हे कुरुनंदन! योगवादी की निश्चयात्मक बुद्धि एकरूप होती है, परंतु अनिश्चयवालों की बुद्धियां अनेक शाखाओं वाली और अनंत होती हैं। 41 टिप्पणी - जब बुद्धि एक से मिटकर अनेक (बुद्धियां) होती है, तब वह बुद्धि न रहकर वासना का रूप धारण करती है। इसलिए बुद्धियों से तात्पर्य है वासनाएं। यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:। अज्ञानी, वेदवादी, ʻइसके सिवा और कुछ नहीं है̕ यह कहने वाले, कामना वाले, स्वर्ग को श्रेष्ठ मानने वाले, जन्म-मरण- रूपी कर्म के फल देने वाली, भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए किये जाने वाले कर्मों के वर्णन से भरी हुई बातें बढ़ा-बढ़ाकर कहते हैं। भोग और ऐश्वर्य में आसक्त रहने वाले इन लोगों की बुद्धि मारी जाती है, इनकी बुद्धि न तो निश्चय वाली होती है और न वह समाधि में ही स्थिर हो सकती है।[1] टिप्पणी- योगवाद के विरुद्ध कर्मकांड अथवा वेदवाद का वर्णन उपर्युक्त तीन श्लोकों में आया है। कर्मकांड या वेदवाद का मतलब फल उपजाने के लिए मंथन करने वाली अगणित क्रियाएं। क्रियाएं वेद के रहस्य से, वेदांत से अलग और अल्प फल वाली होने के कारण निरर्थक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 42, 43, 44 वां श्लोक
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