गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। हे अर्जुन! जो तीन गुण वेद के विषय हैं, उनसे तू अलिप्त रह। सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त हो। नित्य सत्य वस्तु में स्थिर रह। किसी वस्तु को पाने और संभालने के झंझट से मुक्त रह। आत्मपरायण हो। यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके। जैसे जो काम कुएं से निकलते है, वे सब, सब प्रकार से सरोवर से निकलते हैं, वैसे जो सब वेदों में है वह ज्ञानवान् ब्रह्मपरायण को आत्मानुभवों में से मिल रहता है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। कर्म में ही तुझे अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले अनेक फलों में कदापि नहीं। कर्म का फल तेरा हेतु न हो। कर्म न करने का भी तुझे आग्रह न हो। योगस्व: कुरु कर्माणि संङ्गत्यक्त्वा धनंजय। हे धनंजय ! आसक्ति त्यागकर योगस्य रहते हुए अर्थात सफलता-निष्फलता में समान भाव रखकर तू कर्मकर। समता का ही नाम योग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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