गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
प्रस्तावना
पर यहाँ फलत्याग का कोई यह अर्थ न करे कि त्यागी को फल मिलता नहीं। गीता में ऐसे अर्थ को कहीं स्थान नहीं है। फलत्याग से मतलब है फल के सम्बन्ध में आसक्ति का अभाव। वास्तव में देखा जाय तो फलत्यागी को तो हजार गुना फल मिलता है। गीता के फल त्याग में तो अपरिमित श्रद्धा की परीक्षा है। जो मनुष्य परिणाम का ध्यान करता रहता है, वह बहुत बार कर्म-कर्तव्य भ्रष्ट हो जाता है। उसे अधीरता घेरती है, इससे वह क्रोध के वश हो जाता है और फिर वह न करने योग्य करने लग पड़ता है, एक कर्म में से दूसरे में और दूसरे में से तीसरे में पड़ता जाता है। परिणाम की चिंता करने वाले की स्थिति विषयांध की-सी हो जाती है। और अन्त में वह विषयी की भाँति सारासार का, नीति, अनीति का विवेक छोड़ देता है, और फल प्राप्त करने के लिए हर किसी साधन से काम लेता है और उसे धर्म मानता है। फलासक्ति के ऐसे कटु परिणामों में से गीताकार ने अनासक्ति का अर्थात कर्मफल त्याग का सिद्धांत निकाला और संसार के सामने अत्यन्त आकर्षक भाषा में रखा। साधारणत: तो यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ विरोधी वस्तु हैं, ʻʻव्यापार इत्यादि लौकिक व्यवहार में धर्म नहीं बचाया जा सकता, धर्म को जगह नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए किया जा सकता है। धर्म की जगह धर्म शोभा देता है और अर्थ की जगह अर्थ।̕̕" बहुतों से ऐसा कहते हम सुनते हैं। गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है। उसने मोक्ष और व्यवहार के बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्यवहार में धर्म को उतारा है। जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके, वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में है। मतलब, गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि आसक्ति के बिना हो ही न सकें, वे सभी त्याज्य हैं। ऐसा सुवर्ण नियम मनुष्य को अनेक धर्म-संकटों से बचाता है। इस मत के अनुसार खून, झूठ, व्यभिचार इत्यादि कर्म अपने- आप त्याज्य हो जाते हैं। मानव-जीवन सरल बन जाता है और सरलता में से शांति उत्पन्न होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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