गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
तेरहवां अध्याय
प्रभु और उसकी माया दोनों अनादि से चलते आये हैं। माया में से विकार पैदा होते हैं और उनसे-अनेक प्रकार के कर्म पैदा होते हैं। माया के कारण जीव सुख-दु:ख, पाप-पुण्य का भोगने वाला बनता है। यह जानकर जो अलिप्त रहकर कर्तव्य- कर्म करता हे, वह कर्म करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता; क्योंकि वह सर्वत्र ईश्वर को देखता है और उसकी प्रेरणा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता, यह जानकर वह अपने बारे में अहंता को नहीं मानता है, अपने को शरीर से अलग देखता है और समझता है कि जैसे आकाश सर्वत्र होते हुए भी निर्लिप्त ही रहता है, वैसे जीव शरीर में रहते हुए भी ज्ञान द्वारा निर्लिप्त रह सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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