गीता माता -महात्मा गांधी
6 : गीता का अर्थ
1889 के साल में गीता जी से मेरा प्रथम परिचय हुआ। उस समय मेरी उम्र 20 साल की थी। मै अहिंसा-धर्म को बहुत ही थोड़ा समझता था। शत्रु को भी प्रेम से जीतना चाहिए, यह मैं गुजराती कवि शामल भट्ट के इस छप्पय से ‘‘पाणी आपे ने वाय भलुं भोजन तो दीजे‘‘ सीखा था। इसमें जो सत्य है, वह मेरे हृदय में अच्छी तरह बैठ गया था, किन्तु उस समय मुझे उसमें से जीव-दया की स्फुरणा नहीं हुई थी। इसके पहले मैं देश ही में मांसाहार कर चुका था। मैं मानता था कि सर्पादिका नाश करना धर्म है। मुझे याद आता है कि मैने खटमल इत्यादि जीव मारे हैं। मुझे याद आता है कि मैंने एक बिच्छू को भी मारा था। आज यह समझा हूँ कि ऐसे जहरीले जीवों को भी न मारना चाहिए। उस समय मैं यह मानता था कि हमें अंग्रेज़ों के साथ लड़ने के लिए तैयारी करनी होगी। 'अंग्रेज राज्य करते हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है' -इस आशय की एक कविता गुनगुनाया करता था मेरा मांसाहार इसी तैयारी का कारण था। विलायत जाने के पहले मेरे ऐसे विचार थे। मैं मांसाहार इत्यादि से बच गया, इसका कारण माता को दिये हुए वचनों को मरते दम तक पालन करने की मेरी वृत्ति ही थी। सत्य के प्रति मेरे प्रेम ने बहुत-सी आपत्तियों में से मेरी रक्षा की है। अब दो अंग्रेजों से प्रसंग पड़ने पर मुझे गीता पढ़नी पड़ी। ‘पढ़नी पड़ी‘ इसलिए कहता हूं, क्योंकि उसे पढ़ने की मुझे कोई खास इच्छा न थी; लेकिन जब इन दो भाइयों ने मुझे उनके साथ गीता पढ़ने को कहा तब मैं शर्मिन्दा हुआ। मुझे अपने धर्मशास्त्रों का कुछ भी ज्ञान नहीं है, इस ख्याल से मुझे बड़ा दुःख हुआ। मालूम होता है, इस दुःख का कारण अभिमान था। मेरा संस्कृत का अध्ययन ऐसा तो था ही नहीं कि गीता जी के सब श्लोकों का अर्थ मैं बिना किसी मदद के ठीक-ठीक समझ लूं। ये दोनों भाई तो कुछ भी न समझते थे। उन्होंने सर एडविन ऑरनाल्ड का गीता जी का उत्तमोत्तम काव्यानुवाद मेरे सामने रख दिया। मैंने तो फौरन ही उस पुस्तक को पढ़ डाला और उस पर मुग्ध हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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