गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 253

गीता माता -महात्मा गांधी

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6 : गीता का अर्थ


तब से लेकर आज तक दूसरे अध्याय के अंतिम 19 श्लोक मेरे हृदय में अंकित हैं। मेरे लिए तो सब धर्म उन्हीं में आ जाता है। उसमें संपूर्ण ज्ञान है उसमें कहे हुए सिद्धांत अचल हैं। उसमें बुद्धि का भी संपूर्ण प्रयोग किया गया है; लेकिन यह बुद्धि संस्कारी बुद्धि है। उसमें अनुभव ज्ञान है।

इस परिचय के बाद तो मैंने बहुत-से अनुवाद पढ़े, बहुत सी टीकाएं पढ़ी, बहुत-से तर्क किये और सुने, लेकिन उसे पढ़ने पर जो छाप मुझ पर पड़ी थी, वह दूर नहीं हुई। ये श्लोक गीता जी के अर्थ को समझने की कुंजी हैं। उससे विरोधी अर्थ वाले वचन यदि मिलें तो उन्हें त्याग करने की भी सलाह मैं दूंगा। नम्र और विनयी मनुष्य को त्याग करने की भी जरूरत नहीं है। वह तो सिर्फ यों ही कह दे कि दूसरे श्लोकों का आज इसके साथ मेल नहीं मिलता है तो यह मेरी बुद्धि का ही दोष है। समय बीतने पर इनका और इन उन्नीस श्लोकों में कहे गये सिद्धांतों का भी मेल बैठ जायगा। अपने मन से और दूसरों के यह कहकर वह शांत हो जायगा।'

शास्त्र का अर्थ करने में संस्कार और अनुभव की आवश्‍यकता है। शूद्र को वेद का अभ्यास नहीं होता‘, यह वाक्य सर्वथा गलत नहीं है। शूद्र अर्थात असंस्कारी, मूर्ख, अज्ञान। वह वेदादि का अभ्‍यास करके उनका अनर्थ करेगा। बड़ी उम्र के भी सब लोग बीजगणित के कठिन प्रश्न अपने-आप समझने के अधिकारी नहीं हैं। उनको समझने के पहले उन्हें कुछ प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। व्यभिचारी के मुख से ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ क्या शोभा देगा? उसका वह क्या अर्थ या अनर्थ करेगा?

अर्थात शास्त्र का अर्थ करने वाला यमादि का पालन करने वाला होना चाहिए। यमादि का शुप्क पालन जैसा कठिन है, वैसा ही निरर्थक भी है। शास्त्रों ने गुरु का होना आवश्यक माना है; लेकिन इस जमाने में गुरुओं का तो क़रीब-क़रीब लोप-सा हो गया है। ज्ञानी लोग इसीलिए भक्ति -प्रधान प्रकृति ग्रंथों का पठन-पाठन करने की शिक्षा देते है; किन्तु जिनमें भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं, वे शास्त्र का अर्थ करने के अधिकारी नहीं होते। विद्वान लोग विद्वत्‍तापूर्ण अर्थ उसमें से भले ही निकालें; लेकिन वह शास्त्रार्थ नहीं। शास्त्रार्थ तो अनुभवी ही कर सकता है।

परंतु प्रकृति मनुष्यों के लिए भी कुछ सिद्धांत तो है ही। शास्त्रों के वे अर्थ, जो सत्य के विरोधी हैं, यही नहीं हो सकते। जिसे सत्य के सत्य होने के बारे में ही शंका है, उसके लिए शास्त्र हैं ही नहीं, अथवा यों कहिए कि उसके लिए सब शास्त्र अशास्त्र है। उसको कोई नहीं पहुँच सकता। जिसे शास्त्र में से अहिंसा प्राप्त नहीं हुई है, उसके लिए भय है, लेकिन यह बात नहीं कि उसका उद्धार न हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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