गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
स्वभावजेन कौन्तेय हे कौंतेय! अपने स्वभावजन्य कर्म से बद्ध होने के कारण तू जो मोह के वश होकर नहीं करना चाहता, यह बरबस करेगा। ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन, तिष्ठति। हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में वास करता है और अपनी माया के बल से उन्हें चाक पर चढ़े हुए घड़े की तरह घुमाता है। हे भारत! सर्वभाव से तू उसकी शरण ले। उसकी कृपा से परम शांतिमय अमर पद को पावेगा। इतिते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया। इस प्रकार गुह्य-से-गुह्य मैंने तुझसे कहा। इस सारे का भली-भाँति विचार करके तुझे जो अच्छा लगे सो कर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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