गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 187

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
चौहदवां अध्याय
गुणत्रयविभागयोग


श्रीभगवानुवाच-
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥23॥
समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ॥24॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ॥25॥

श्री भगवान बोले- हे पांडव! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह प्राप्‍त होने पर जो दु:ख नहीं मानता और इनके प्राप्‍त न होने पर इनकी इच्‍छा नहीं करता, उदासीन की भाँति जो स्थिर है, जिसे गुण विचलित नहीं करते, गुण ही अपना काम कर रहे हैं यह मानकर जो स्थिर रहता है और विचलित नहीं होता, जो सुख-दु:ख में सम रहता है, स्‍वस्‍थ रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्‍थर और सोने को समान समझता है, प्रिय अथवा अप्रिय वस्‍तु प्राप्‍त होने पर एक समान रहता है, ऐसा बुद्धिमान जिसे अपनी निंदा या स्‍तुति समान है, जिसे मान और अपमान है, जो मित्र पक्ष और शत्रु पक्ष में समान भाव रखता है और जिसने समस्‍त आरंभों का त्‍याग कर दिया है, वह गुणातीत कहलाता है।

टिप्‍पणी- 22 से 25 तक के श्‍लोक एक साथ विचारने योग्‍य हैं, प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह पिछले श्‍लोक में कहे अनुसार क्रम से सत्‍व, रजस और तमस के परिणाम अथवा चिह्र हैं। कहने का तात्‍पर्य यह है कि जो गुणों को पार कर गया है, उस पर उस परिणाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पत्‍थर प्रकाश की इच्‍छा नहीं करता, न प्रवृत्ति या जड़ता का द्वेष करता है। उसे बिना चाहे शांति है, उसे कोई गति देता है तो वह उसका द्वेष नहीं करता। गति देने के बाद उसे ठहरा करके रख देता है तो इससे, प्रवृत्ति- गति बंद हो गई, मोह- जड़ता प्राप्‍त हुई, ऐसा सोचकर वह दुखी नहीं होता, वरन् तीनों स्थितियों में वह एक समान बर्तता है।

पत्‍थर और गुणातीत में अंतर यह है कि गुणातीत चेतनमय है और उसने ज्ञानपूर्वक गुणों के परिणामों का- स्‍पर्श का त्‍याग किया है और जड़- पत्‍थर-सा बन गया है। पत्‍थर गुणों का अर्थात प्रकृति के कार्यों का साक्षी है, पर कर्ता नहीं है, वैसे ज्ञानी उसका साक्षी रहता है, कर्ता नहीं रह जाता। ऐसे ज्ञानी के संबंध में यह कल्‍पना की जा सकती है कि वह 23 वें श्‍लोक के कथनानुसार ‘गुण अपना काम किया करते हैं’ यह मानता हुआ विचलित नहीं होता और अचल रहता है, उदासीन- सा रहता है- अडिग रहता है। यह स्थिति गुणों में तन्‍मय हुए हम लोग धैर्यपूर्वक केवल कल्‍पना करके समझ सकते हैं, अनुभव नहीं कर सकते। परंतु उस कल्‍पना को दृष्टि में रखकर हम ‘मैं’ पने को दिन- दिन घटाते जायें तो अंत में गुणातीत की अवस्‍था से समीप पहुँचकर उसकी झांकी कर सकते हैं।

गुणातीत अपनी स्थिति का अनुभव करता है, वर्णन नहीं कर सकता। जो वर्णन कर सकता है वह गुणातीत नहीं है, क्‍योंकि उसमें अहंभाव मौजूद है। जिसे सब लोग सहज में अनुभव कर सकते हैं वह शांति, प्रकाश, ‘धांधल’- प्रवृत्ति और जड़ता- मोह हैं। गीता में स्‍थान- स्‍थान पर इसे स्‍पष्ट किया है कि सात्त्विकता गुणातीत के समीप-से-समीप की स्थिति है इसलिए मनुष्‍य मात्र का प्रयत्न सत्‍वगुण के विकास करने का है। यह विश्‍वास रखे कि उसे गुणातीतता अवश्‍य प्राप्‍त होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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