गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौहदवां अध्याय
गुणत्रयविभागयोग
श्रीभगवानुवाच- श्री भगवान बोले- हे पांडव! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह प्राप्त होने पर जो दु:ख नहीं मानता और इनके प्राप्त न होने पर इनकी इच्छा नहीं करता, उदासीन की भाँति जो स्थिर है, जिसे गुण विचलित नहीं करते, गुण ही अपना काम कर रहे हैं यह मानकर जो स्थिर रहता है और विचलित नहीं होता, जो सुख-दु:ख में सम रहता है, स्वस्थ रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने को समान समझता है, प्रिय अथवा अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर एक समान रहता है, ऐसा बुद्धिमान जिसे अपनी निंदा या स्तुति समान है, जिसे मान और अपमान है, जो मित्र पक्ष और शत्रु पक्ष में समान भाव रखता है और जिसने समस्त आरंभों का त्याग कर दिया है, वह गुणातीत कहलाता है। टिप्पणी- 22 से 25 तक के श्लोक एक साथ विचारने योग्य हैं, प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह पिछले श्लोक में कहे अनुसार क्रम से सत्व, रजस और तमस के परिणाम अथवा चिह्र हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो गुणों को पार कर गया है, उस पर उस परिणाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पत्थर प्रकाश की इच्छा नहीं करता, न प्रवृत्ति या जड़ता का द्वेष करता है। उसे बिना चाहे शांति है, उसे कोई गति देता है तो वह उसका द्वेष नहीं करता। गति देने के बाद उसे ठहरा करके रख देता है तो इससे, प्रवृत्ति- गति बंद हो गई, मोह- जड़ता प्राप्त हुई, ऐसा सोचकर वह दुखी नहीं होता, वरन् तीनों स्थितियों में वह एक समान बर्तता है। पत्थर और गुणातीत में अंतर यह है कि गुणातीत चेतनमय है और उसने ज्ञानपूर्वक गुणों के परिणामों का- स्पर्श का त्याग किया है और जड़- पत्थर-सा बन गया है। पत्थर गुणों का अर्थात प्रकृति के कार्यों का साक्षी है, पर कर्ता नहीं है, वैसे ज्ञानी उसका साक्षी रहता है, कर्ता नहीं रह जाता। ऐसे ज्ञानी के संबंध में यह कल्पना की जा सकती है कि वह 23 वें श्लोक के कथनानुसार ‘गुण अपना काम किया करते हैं’ यह मानता हुआ विचलित नहीं होता और अचल रहता है, उदासीन- सा रहता है- अडिग रहता है। यह स्थिति गुणों में तन्मय हुए हम लोग धैर्यपूर्वक केवल कल्पना करके समझ सकते हैं, अनुभव नहीं कर सकते। परंतु उस कल्पना को दृष्टि में रखकर हम ‘मैं’ पने को दिन- दिन घटाते जायें तो अंत में गुणातीत की अवस्था से समीप पहुँचकर उसकी झांकी कर सकते हैं। गुणातीत अपनी स्थिति का अनुभव करता है, वर्णन नहीं कर सकता। जो वर्णन कर सकता है वह गुणातीत नहीं है, क्योंकि उसमें अहंभाव मौजूद है। जिसे सब लोग सहज में अनुभव कर सकते हैं वह शांति, प्रकाश, ‘धांधल’- प्रवृत्ति और जड़ता- मोह हैं। गीता में स्थान- स्थान पर इसे स्पष्ट किया है कि सात्त्विकता गुणातीत के समीप-से-समीप की स्थिति है इसलिए मनुष्य मात्र का प्रयत्न सत्वगुण के विकास करने का है। यह विश्वास रखे कि उसे गुणातीतता अवश्य प्राप्त होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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