गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सातवां अध्याय
ज्ञानविज्ञान योग
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। यह अपरा प्रकृति हुई। इससे भी ऊँची परा प्रकृति है, जो जीवरूप है। हे महाबाहो! यह जगत उसके आधार पर निभ रहा है। एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। भूतमात्र की उत्पत्ति का कारण तू इन दोनों को जान। समूचे जगत की उत्पत्ति और लय का कारण मैं हूँ। मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय। हे धनंजय! मुझसे उच्च दूसरा कुछ नहीं है। जैसे धागे में मनके पिरोये हुए रहते हैं वैसे यह मुझमें पिरोया हुआ है। रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:। है कौंतेय! जल में रस मैं हूं, सूर्य-चंद्र में तेज मै हूं; सब वेदों में ओंकार मैं हूं, आकाश में शब्द मैं हूँ और पुरुषों का पराक्रम मैं हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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