गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानिशेषत:। संकल्प से उत्पन्न होने वाली सारी कामनाओं का पूर्ण रूप से त्याग करके, मन से ही इंद्रिय-समूह को सब ओर से भली-भाँति नियम में लाकर अचल बुद्धि से योगी धीरे-धीरे शांत होता जाये और मन को आत्मा में पिरोकर, दूसरी बात का विचार न करे। यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्। जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भागे, वहाँ-वहाँ से योगी उसे नियम में लाकर अपने वश में लावे। प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। जिसका मन भली-भाँति शांत हुआ है, जिसके विकार शांत हो गए हैं, ऐसा ब्रह्ममय हुआ निष्पाप योगी अवश्य उत्तम सुख प्राप्त करता है। युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:। आत्मा के साथ निरन्तर अनुसंधान करते हुए पाप-रहित हुआ यह योगी सरलता से ब्रह्मप्राप्ति-रूप अनंत सुख का अनुभव करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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