नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. ग्रामदेव-अक्रूर आये
वनदेवी बार-बार शकुनों द्वारा शुभ सूचना देकर उत्साहित करती रहीं। अक्रूर के दक्षिण नेत्र, दक्षिण बाहु में स्फुरण हुआ। सूझा उन्हें- 'पुरुषोत्तम साधन साध्य तो नहीं है। ये पतितपावन, अनाथनाथ, अनाश्रयाश्रय दयाधाम दीनबन्धु अवश्य मुझ दीन, अनाश्रित को अपना लेंगे। अवश्य मुझ पर कृपासागर कृष्ण कृपा करेंगे। मेरा हाथ पकड़कर उनके अग्रज मुझे सदन में ले जायँगे। मेरा समुचित सत्कार करेंगे। उनकी करुणा का कोई पार है, फिर मैं कातर क्यों बनूँ। वे तो सदा अपनी ही अनुकम्पा से मुझ जैसे साधनहीन को अपनाते आये हैं।' अक्रूर का रथ इस प्रकार बहुत अटकता हुआ बढ़ रहा था और तब तो वन में ही रह गया होता यदि प्रशिक्षित अश्व स्वयं अक्रूर का अनुगमन न करते, जब वन-पथ में सहसा गौओं के असंख्य खुरों के चिन्ह अक्रूर ने देखे और रथ से उतर पड़े। उन गोपद-चिन्हों के पीछे बालकों के पद-चिन्हों में नन्दनन्दन के चरण-चिन्ह पहिचानना किसी के लिए कठिन कार्य नहीं है। पद्म, ध्वज, वज्रादि चिन्ह किसी भी सामान्य मानव के चरणों में तो नहीं होते। 'अहा! ये मेरे आराध्य के चरण-चिन्ह हैं। अक्रूर तो चिन्हों को दण्डवत प्रणिपात करने लगे। उनकी रज मस्तक में लगाते, शरीर में मलते, पुलकपूरित शरीर, अजस्त्र अश्रुधारा नेत्रों में- अक्रूर को अपने भी शरीर की सुघि नहीं रही। पद-चिन्ह बराबर प्राप्त न होते तो अक्रूर वन में अवश्य भटक जाते। वे तो पद-चिन्हों को प्रणिपात करते, उनकी रज में स्नात पैदल ही बढ़ते आये नन्दीश्वरपुर। प्रशिक्षित अश्व रथ को लिए उनके साथ पीछे चलते रहे। इस प्रकार सायंकाल अक्रूर पहुँच सके। राम-श्याम गोदोहन समाप्त करके गोष्ठ से निकले ही थे। अक्रूर देखते ही दौड़कर दण्डवत पड़े सम्मुख। श्रीव्रजराजकुमार ने उठाकर हृदय से लगा लिया। अक्रूर के अश्रु से श्यामसुन्दर की अलकें आर्द्र हो गयीं। कुछ क्षण पश्चात अपने को सम्हालकर संकर्षण को उन्होंने प्रणिपात किया। अंकमाल देकर, कर पकड़कर श्रीबलराम ले आये सदन में। श्रीकृष्णचन्द्र के संकेत पर सेवकों ने रथ सम्हाल लिया। अश्वों को खोला और उनको चारा दिया। व्रजराज बाहु फैलाकर मिले। इतना आदर- ऐसा आतिथ्य जिसकी कल्पना भी अक्रूर ने नहीं की थी। उनका देवता के समान पूजन हुआ। श्रीनन्दराय ने उत्तम गायें उपहार में दीं। |
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