संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 4

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम


श्रीकृष्ण के कर्णछेदन का वर्णन बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है। कर्णछेदन के समय यशोदा को पहले तो बड़ा आनन्द होता है, परंतु जब यह ध्यान आता है कि कर्णछेदन करने से बालक कृष्ण को कष्ट होगा तो उनका हृदय धड़कने लगता है। वे उधर देख भी नहीं सकीं और मुख मोड़ लेती हैं। श्रीकृष्ण रोने लगते हैं तो कर्णछेदन करने वाले नाई को धमकाने लगती हैं ताकि रोते हुए बालक को कुछ ढाढ़स बँध सके। बालस्वभाव की परख और माता के हृदय की अनुभूति से भरा कर्णछेदन का यथार्थ चित्रण सूरदास जी की निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है-

कान्ह कुँवर कौ कनछेदन है, हाथ सोहारी भेली गुर की।
बिधि बिहँसत, हरि हँसत हेरि हरि, जसुमति की धुकधुकी सु उर की।।
लोचन भरि-भरि दोऊ माता, कनछेदन देखत जिय मुरकी।
रोवत देखि जननि अकुलानी, दियौ तुरत नौआ कौं घुरकी।।[1]

श्रीकृष्ण की बालछवि का वर्णन– श्रीकृष्ण की बालछवि का वर्णन सूरदास जी ने क्रम-क्रम करके उनके बढ़ते हुए रूप के अनुसार किया है। उनके पूरे शरीर के सौन्दर्य के साथ शरीर के एक-एक अंग का जैसे पैर, अँगुली, नख, कर, चिबुक, भुजा, कण्ठ, ओष्ठ, मुख, जीभ, दाँत, नाक, कान, नेत्र, भौंह, भाल, बाल आदि का अनेक पदों में वर्णन किया है। विभिन्न आभूषणों-पैंजनी, किंकिनी, पहुँची, बघनखा, कठुला शेरनख, मोती और प्रवाल के द्वारा अलंकृत उनकी शोभा के वर्णन किये हैं। पिछोरी, झगुलिया, कुलही आदि के साथ बिंदी, डिठौना, तिलक, काजल आदि के वर्णन बालछवि के वर्णन हैं। श्रीकृष्ण के हँसने, किलकने, तुतलाने, लड़खड़ाकर चलने, धूलसरित होने, माखन खाने, लपटाने, प्रतिबिम्ब को पकड़ने, खेलने, नाचने आदि का वर्णन सूरदास जी ने अनेक पदों में किया है। इन वर्णनों में सूर की रुचि इसलिये भी अधिक जगी है; क्योंकि वे उनके अपने हृदयगत इष्टदेव के प्रति भावों की तरह हैं। इस प्रसंग का एक पद अतीव वात्सल्यरसपूर्ण है। वह यहाँ पर द्रष्टव्य है-

सुत-मुख देखि जसोदा फूली।
हरषित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली।
बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौं धौं सुंदर सुखदाई।
तनक-तनक सी दूध-दँतुलिया, देखौ नैन सफल करौ आई।।
आनँद सहित महर तब आए, मुख चितवत दोउ नैन अघाई।
सूर स्याम किलकत द्विज देख्यौ, मनो कमल पर बिज्जु जमाई।।[2]

यहाँ पर श्रीकृष्ण आलम्बन हैं। यशोदा और नन्द आश्रय हैं। दूध के दाँत उद्दीपनविभाव है। नन्द को बुलाना औद दोनों का ध्यान देकर देखना अनुभाव है और हर्ष संचारीभाव है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूरसागर 798
  2. सूरसागर 700

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