संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 6

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम


यहाँ पर उनका एक बड़ा प्रसिद्ध पद पठनीय है-

मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहाँ।
जैहाँ लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहाँ।
सुरभी कौ पय पान न करिहाँ, बेनी सिर न गुहैहाँ।
हैहाँ पूत नँद बाबा कौ तेरी सुत न कहैहाँ।
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहिं न जनैहाँ।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहाँ।
तेरी साँ मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहाँ।
सूरदास है कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहाँ।।[1]


बाल-क्रीड़ा और चेष्टाएँ-बालक्रीड़ा वात्सल्यरस के उद्बोधन का महत्त्वपूर्ण अंग है। बालक्रीड़ा से वात्सल्यरस उद्दीप्त होता है। सूरदास ने बाल भगवान के शिशुरूप और बालरूप दोनों की क्रीड़ाओं का सुन्दर चित्रण किया है। श्रीकृष्ण आँगन में घुटनों के बल चल रहे हैं। वे किलकारी मार रहे हैं। नन्द और यशोदा उनकी क्रीड़ा पर भाव-विभोर हो रहे हैं। तोतले शब्द, दौड़ना, गिरना, फिर उठना, मणियों के आँगन में अपने प्रतिबिम्ब को पकड़ना इसी तरह की शिशु क्रीड़ाएँ हैं। श्रीकृष्ण कुछ बड़े होते हैं तो यशोदा उन्हें अँगुली पकड़कर चलना सिखाती हैं। पैरों की पैंजनियाँ बजती हैं। यशोदा उन्हें नचाती हैं और बड़ा आनन्द लेती हैं- ‘आँगन स्याम नचावहीं जसुमति नँदरानी’। श्रीकृष्ण अपनी चंचलता के कारण स्वयं भी तरह-तरह की चेष्टाएँ करते हैं। यशोदा दूध बिलो रही हैं उससे रई की घुमड़-घुमड़ ध्वनि हो रही है। श्रीकृष्णजी अपनी किंकिणी और नूपुरों की ध्वनि करते हुए उसी रई की ध्वनि के साथ नाचते हैं-


त्याँ त्याँ मोहन नाचै ज्याँ ज्याँ रई-घमरकौ होइ री।
तैसिये किंकिनी-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ री।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूरसागर 811

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