संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम
सूरदासरचित वात्सल्यरस का बड़ा प्रसिद्ध पद है-
मैया मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ।
देखि तुही सींके पर भाजन, उँचैं धरि लटकायौ।
हाँ जु कहत नान्हे कर अपनें मैं कैसैं करि पायौ।
मुख दधि पोंटि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ।
डारि साँटि, मुसुकाई जसोदा, स्याममहिं कंठ लगायौ।
बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति-प्रताप दिखायौ।
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ।।[1]
इस उपर्युक्त पद में वात्सल्यरस की पूर्ण निष्पत्ति हुई है। इसमें रस के सारे अवयव आ गये हैं। यशोदा इसमें आश्रय हैं। श्रीकृष्ण आलम्बन हैं। श्रीकृष्ण की चतुराई-मुख से दधि पोंछना और दोना पीछे छुपाना उद्दीपन हैं। साँटी डाल देना एवं कण्ठ से लगा लेना अनुभाव हैं और मुसकराना संचारीभाव है। ऐसी रसमाधुरी लिये हुए वात्सल्यरस का चित्रण देखकर ही आचार्यों ने सूर को वात्सल्यरस का प्रतिष्ठापक कहा है। मातृहृदय-सूरदास को माता के हृदय का सच्चा पारखी कहा गया है। सूरसागर में भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं के वर्णन में सबसे अधिक पद माता के हृदयपक्ष से सम्बद्ध हैं। माता के हृदय को पहचानने के विषय में सहृदयों का मानना है कि सूरदास बाललीलावर्णन करने में अद्वितीय हैं, यह बात सत्य है, किंतु मातृहृदय का चित्र खींचने में ये अपनी सानी नहीं रखते।
यशोदा माता हैं। वे वात्सल्यमयी हैं। उन्हीं ने श्रीकृष्ण के वात्सल्य का सर्वाधिक अनुभव किया है। सूर ने उनके हृदय का अनुभव करके यशोदा की आँखों से कृष्ण को देखकर स्वयं प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी इतनी मार्मिक अभिव्यक्ति की है जो देखते ही बनती है। माता की अभिलाषा बच्चे के शीघ्र बड़े होने की होती है। यशोदा कहती हैं- ‘नान्हरिया लाल, बू बेगि बड़ो किन होहि’। यशोदा जी भगवान श्रीकृष्ण को अपना बच्चा समझती हैं। मिट्टी खाने के प्रसंग में भगवान अपनी माया से उन्हें विमोहित तो करते हैं, पर पुनः उन्हें भुलावे में डाल देते हैं। उन्हें याद नहीं रहता कि उन्होंने श्रीकृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड देखा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सूरसागर 952
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