संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 3

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम

सूरदास जी वर्णन करते हैं-

सोभा-सिंधु न अंत रही री।
नंद-भवन भरि पूरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री।

सूरदास जी ने आनन्द-उल्लास का वर्णन वात्सल्य से पुष्टरूप में किया है बढ़ई से रत्नजटित पालना बनवाया गया है, उसमें रेशम की डोरी लगी है। श्रीकृष्ण को पालने में सुलाकर यशोदा आनन्दित होती हैं। श्रीकृष्ण कभी पलक मूँद लेते हैं, कभी अधर फड़काते हैं। पालने में झुलाते समय वात्सल्यमयी यशोदा का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है-

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोड़-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नीिं बेगहिं आवै, तो कौं कान्ह बुलावै।[1]


विभिन्न संस्कारों के अवसरों पर वात्सल्य-सुखानुभूति

पुत्रोत्सव के पश्चात होने वाले अनेक संस्कारों का वर्णन सूरदास जी ने किया है। इनमें नामकरण, वर्षगाँठ, अन्नप्राशन एवं कर्णछेदन सख्य हैं। नामकरण और अन्नप्राशन पर ज्योतिषी तथा ब्राह्मण को बुलाया जाता है। उस समय भी उत्स जैसा वातावरण होता है। कृष्ण की एक वर्ष की अवस्था हो जाने पर सूरदास जी ने उनके वर्षगाँठ के उत्सव का और उस समय के आनन्दोल्लास का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण को श्रृंगार कराकर और वस्त्राभूषणों से सजाकर यशोदा फूली नहीं समाती हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में सूर ने उस समय के वात्सल्यमय दृश्य का वर्णन करते हुए कहा है-

दोउ कपोल गहि कै मुखे चूमति, बरष-दिवस कहि करति कलोल।
सूर स्याम ब्रज-जन-मोहन-बरष-गाँठि कौ डोरा खोल।।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूरसागर 661
  2. सूर सागर 712

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