संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 10

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम


ऊखल से बाँधने पर, माखन चोरी करने पर और दूध बिलोते ही मटका फोड़ने पर नाराज होकर भी माता भीतर से द्रवित हो जाती हैं। उलाहना देने पर कई बार गोपियों पर ही खीझ पड़ती हैं कि क्या हो गया जो माखन खा लिया तो-

कहन लगीं अब बढ़ि-बढ़ि बात।
ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ, तनकहिं माखन खात।[1]

ये भाव यशोदा माता के हृदय की अभिव्यक्ति करने वाले हैं। जब श्रीकृष्ण गोवर्धन को उठा लेते हैं तो यशोदा का मातृहृदय बड़े आश्चर्य में पड़ जाता है। माता को पुत्र सदैव कोमल और अशक्त लगता है। यशोदा श्रीकृष्ण के हाथ दबाने लगती हैं और बलैया लेती हैं। सूरदासजी वर्णन करते हैं-

गिरिवन कैसैं लियौ उठाइ।
कोमल कर चापति महतारी, यह कहि लेति बलाइ।।[2]

वियोग-वात्सल्य

संयोगसुख के अभाव का नाम वियोग है। श्रीकृष्ण के साथ नन्द- यशोदा, गोप-गोपी, ग्वाल-बाल और गाय- बछड़ों का बेहद लगाव था। श्रीकृष्ण के अलग होने पर उन सभी को वियोग की अनुभूति होती हैं। श्रीकृष्ण के वियोगवात्सल्य की अनुभूति सबसे अधिक यशोदा को होती है। श्रीकृष्ण का वियोग दो अवसरों पर होता है एक तो कालीदह में कूद पड़ने पर और दूसरा मथुरा चले जाने पर। कालीदह में कूदने का वियोग थोड़ी देर का होता है, पर यशोदा की अतिशय वियोग-वात्सल्यभरी छटपटाहट देखने में आती है-

खन भीतर, खन बाहिर आवति, खन आँगन इहिं भाँति।
सूर स्याम कौं टेरति जननी, नैंकु नहीं मन साँति।।[3]

वियोग का दूसरा अवसर श्रीकृष्ण के मथुरागमन पर आता है। यह श्रीकृष्ण का दीर्घकालीन वियोग है। सूर ने संयोग-वात्सल्य की तरह वियोग-वात्सल्य की अभिव्यक्ति भी बड़ी गम्भीर, व्यापक और सूक्ष्म चित्रण द्वारा की है। मथुरा जाने के वियोग में कंस के द्वारा अनिष्ट की आशंका से वेदना और बलवती हो जाती है। श्रीकृष्ण का दीर्घकालीन साहचर्य एकदम भुलाया भी नहीं जा सकता। श्रीकृष्ण के मथुरागमन के अवसर पर चार बार वियोग की अभिव्यक्ति सूरदास जी ने अपने विशाल ग्रन्थ ‘सूरसागर’ में की है-
(1) मथुरा जाते समय, (2) नन्द आदि के मथुरा से लौटते समय, (3) कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर नन्द तथा यशोदा के वार्तालाप करते समय और (4) उद्धव में आगमन के समय। वियोग-वात्सल्य के चित्रण में सूरदास ने माता यशोदा के विरहोद्गारों की ही अभिव्यक्ति की है। मथुरा जाते समय वे अनिष्ट की आशंका से अभिभूत हो जाती हैं और श्रीकृष्ण तथा बलराम को ले जाने का सारा दोष अक्रूर को देती हैं। वे कातरता भरे शब्दों में व्रज के लोगों को पुकारती हैं। उनके शब्दों में वियोग-वात्सल्य की छटपटाहट व्यक्त होती है-

जसोदा बार बार यौं भाषै।
है कोउ ब्रज मैं हितू हमारो, चलत गुपालहिं राखै।।[4]


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूरसागर 973
  2. सूरसागर 1585
  3. सूरसागर 1158
  4. सूरसागर 3591

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः