संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 2

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम

ऐसे दिव्य-दृष्टिप्राप्त संत ने अपनी बंद आँखों से भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का वात्सल्यरस से सिक्त वाणी में विस्तारभरा वर्णन किया है। रसधारा में भक्त और साहित्यकार निमग्न हो गये।

सूरदासजी के वात्सल्य की दो दशाएँ हैं-(क) संयोग-वात्सल्य और (ख) वियोग-वात्सल्य, जो यहाँ संक्षेप में वर्णित हैं-

संयोग-वात्सल्य
  1. पुत्रजन्म का आनन्द और उल्लास
  2. विभिन्न संस्कारों के अवसरों पर वात्सल्यसुखानुभूति
  3. श्रीकृष्ण की बालछवि का वर्णन
  4. बालस्वभाव का चित्रण
  5. बालक्रीडा एवं चेष्टाएँ
  6. माखनचोरी और उलाहने
  7. मातृहृदय

पुत्र-जन्म के आनन्दोल्लास का वर्णन श्रीकृष्ण के प्रति अभिव्यक्त वात्सल्य के आश्रय नन्द, यशोदा, व्रज की गोपियाँ और गोप हैं। उन्हीं को वात्सल्यसुख की विशेष अनुभूति होती है। वसुदेव और देवकी तो उनके रूप को देखकर आश्चर्य से अभिभूत हो जाते हैं। नन्द के यहाँ पुत्रजन्म के हर्ष और आनन्द का बड़ा ही सजीव वर्णन सूर ने किया है। माता यशोदा पुत्र के सुख को देखकर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होती हैं। नन्द अपनी प्रसन्नता को वस्त्र, आभूषण, गाय और नाना वस्तुओं का दान करके प्रकट करते हैं। गोपियाँ मंगलगान करती हैं, बधाई देती हैं और शिशु को आशीर्वाद देती हैं। ढाढी, जगा, सूत, मागध आदि भी नेग लेते हैं और आशीर्वाद देते हैं। सारे व्रज में पुत्रजन्म पर फैली शोभा की कोई सीमा नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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