श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
58. एक वर्ष के व्यवधान के बाद श्रीकृष्ण का पुनः ब्रह्मा जी के द्वारा अपहृत गोप बालकों एवं गोवत्सों के साथ व्रज में लौटना और बालकों का अपनी माताओं से अघासुर के वध का वृत्तान्त इस रूप में कहना मानो वह घटना उसी दिन घटी हो; व्रजगोपियों तथा व्रज की गायों के स्नेह का अपने बालकों एवं बछड़ों से हटकर पुनः पूर्ववत श्रीकृष्ण में ही केन्द्रित हो जाना
और इस व्रज प्रवेश के समय उनके महामरकत-श्यामल श्रीअंगों की निराली शोभा, उनकी विविध रसमयी चेष्टाएँ और व्रजपुरन्ध्रियों की प्रतीक्षा- बस, देखते ही बनती है। मस्तक तो मयूर पिच्छ निर्मित मनोहर मुकुट से मण्डित है। घुँघराली अलकों में विविध वर्ण के मँह-मँह करते हुए कुसुम समूह गुम्फित हो रहे हैं। अन्य अंगों में भी यथा योग्य कुसुमों के ही आभरण सुशोभित हैं। अत्यन्त नवीन, रंग-बिरंगी गैरिक आदि वन्य धातुओं से श्याम कलेवर पर सुन्दरातिसुन्दर विविध चित्रों का निर्माण किया हुआ है। अपने बिम्बविडम्बी अधरों पर कभी तो वे वंशी को धारण कर उससे अनेक रसमय अत्यन्त स्फुट स्वरों का सृजन करते हैं, कभी तरु पत्रों को मोड़ कर बनाये हुए वाद्य यन्त्र (सीटी) में अपने परम सुरभित मुख श्वास भरकर अद्भुत मनोहर राग की एक ऊँची अतिशय मधुर तान छोड़ देते हैं और कभी गूँज उठता है उनका मेघ गम्भीर श्रृंगनाद। इस प्रकार वाद्योत्सव में वे निमग्न हो रहे हैं। उनकी वह सखा मण्डली भी परमानन्द में डूब रही है। प्रत्येक शिशु अपने हृत्तल के सुख को अवरुद्ध करने में असमर्थ होकर मधुर उच्चस्वर से उनकी ही पवित्र कीर्ति का गान कर रहा है, प्रत्येक के कण्ठ से व्रजेन्द्र नन्दन की ही प्रशंसा के गीत झर रहे हैं; सर्वथा अपनी ही प्रतिभा से रचित एवं तालबन्ध के साथ गाये हुए उन मधुर गीतों में एक मात्र भरा है नन्द नन्दन के सुयश का वर्णन, अघासुर आदि के उद्धार के समय व्यक्त हुई उनकी बाल्य चेष्टामयी पुनीत कीर्ति का चारुचित्रण और फिर वे नन्द लाडिले सहसा कभी इन समस्त गान-वाद्य के राग-रंग का विराम करके उन गोवत्सों का नाम ले-ले कर आह्वान करने लगते हैं, इस अद्भुत गान-वाद्य के उत्सव-सुख से विभोर, विह्वल, उच्छृंखल हुई अपार गोवत्स राशि को संयत करने लगते हैं; अपने परम सुखद कर स्पर्श के दान से, अनेक नवीन-नवीन प्रेमिल चेष्टाओं से इनका उपलालन करते हुए इन्हें बुला-बुला कर गन्तव्य दिशा की ओर प्रेरित करने लगते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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