श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
57. ब्रह्मा जी का श्रीकृष्ण से विदा माँग कर सत्य लोग में लौट जाना; पुनः वन-भोजन; योग माया के द्वारा गोपबालकों एवं गोवत्सों का व्रज में प्रत्यावर्तन; उनके सामने उसी दृश्य का पुनः प्रकट होना, जिसे छोड़कर श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढ़ने निकले थे, तथा उन्हें ऐसा प्रतीत होना मानो श्रीकृष्ण अभी-अभी गये हैं।
अस्तु, इतनी देर तक किये हुए स्तवन के प्रभाव से अब स्रष्टा पर व्रजराज कुमार की कृपा विशेष रूप से लहरा उठती है। जगत-कर्त्तृत्व, जगदीशत्व आदि का अभिमान तो कभी का विगलित हो चुका था, इस कृपावारि ने उसके चिह्न तक धो दिये! परमदैन्य की सदा के लिये प्रतिष्ठा हो गयी वहाँ। व्रजेन्द्र नन्दन के नित्य दास होने का विशुद्ध अभिमान जाग उठा। स्रष्टा की समस्त धारणाएँ बदल गयीं। फिर तो और कुछ अधिक कहने की, निवेदन करने की आवश्यकता ही कहाँ रही। हाँ, स्वामी की अनुमति ले कर ही, पूर्ण समर्पण एवं निर्भरता की भावना में निमग्न हो कर ही अपने स्थान पर लौटा जा सकता है। यही दासोचित आचार है और इसी का पालन करते हुए पितामह कहने लगते हें- ‘श्रीकृष्णचन्द्र! स्वामिन! अब मुझे आज्ञा करो, मैं अपने स्थान पर ही केवल तुम्हारी सौंपी हुई सेवा का निर्वाह करने के लिये लौट जाऊँ। अब और कुछ नहीं कहना है, नाथ! आवश्यकता ही नहीं है कहने की। तुम सर्वसाक्षी जो हो! सब कुछ पहले से ही तुम जानते रहते हो, भगवन! साथ ही यह समस्त परिदृश्यमान जगत तुम में ही तो अधिष्ठित है, विभो! एक मात्र जगन्नाथ तुम्हीं तो हो! मेरे स्वामी भी तुम्हीं हो, श्रीकृष्णचन्द्र! आज तक की मेरी ममतास्पद, अहंतास्पद वस्तुएँ मेरा जगत, मेरा यह शरीर सब कुछ तुम्हें ही समर्पित है, मेरा परमाराध्य! तुम्हारी ही वस्तुएँ तुम्हें अर्पित हैं, भगवन! अब आगे मुझ दास के लिये मेरे शक्ति-सामर्थ्य, अधिकार के अनुरूप सर्वोत्तम व्यवस्था तुम स्वयं अपने आप करोगे ही, नाथ!’-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10। 14। 39)
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