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- हो प्रभु! धन्य-धन्य ये गोपी, धनि ये धेनु परम रस ओपी।
- बालक ह्वै, बछ ह्वै प्रभु जिन के, पीवत भए पयोधर तिन के।।
- बहुरयौ तनक स्तन्य-पय पाइ, बार-बार तुम रहत अघाइ।
- कब के जग्य-भाग हौ खात, तहँ तुम तनकौ नहिंन अघात।।
‘केवल गायों का एवं गोपरमणियों का ही नहीं, नन्दव्रज के अधिवासी का भाग्य अनिर्वचनीय है, नाथ!’- पद्मयोनि उसी भावना में डूबकर कहते चले जा रहे हैं- ‘गोपराज नन्द के वृज में स्थान पाये हुए जीवमात्र को तुमने अपने जिस कृपाप्रसाद का दान किया है, उसकी अन्यत्र कहीं भी तुलना सम्भव नहीं है, स्वामिन! इससे पूर्व ऐसा निरुपाधि प्रेमदान कहाँ किसे प्राप्त हुआ है, प्रभो! अवांमनसगोचर परमानन्दस्वरूप, सनातन परिपूर्ण ब्रह्म तुम स्वयं इनके- ओह! व्रज के पशु-पक्षी, गुल्म-लता-वल्लरियों तक के परम सुहृद्रूप में प्रत्यक्ष अवस्थित रहकर इन्हें अपने साथ लेकर अनन्त, पारावार-विहीन प्रेमसिन्धु में संतरण कर रहे हो- यह अप्रतिम सौभाग्य इससे पूर्व कहाँ किनका हुआ है, देव! सच्चिदानन्द, परब्रह्म साक्षात्कार कर लेने के लिये अनेकों को दौड़ते हुए देख लेना सम्भव है; पर उस परमानन्दस्वरूप परब्रह्म को ही गोपशिशुओं के, गोवत्सों के पीछे, उन्हें ढूँढ़ने के लिये दौड़ते हुए दर्शन कर लेना यहाँ इस नन्दव्रज के अतिरिक्त और कहीं भी सम्भव नहीं है, स्वामिन।
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