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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
55. ब्रह्मा जी द्वारा की गयी स्तुति एवं प्रार्थना
‘और विशेषतः यह तो प्रसिद्ध ही है, प्रभो! कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ!’- पद्मयोनि उसी प्रवाह में कहते चले गये। ‘यह समस्त विश्वप्रपंच तो परम्परा से ही तुमसे उत्पन्न हुआ है, नाथ! किंतु मेरा जन्म तो साक्षात तुम्हीं से हुआ है, देव! उस सयम की बात है- प्रपंच का प्रलय हो चुका था; ऊर्ध्व, मध्य, अद्यः- तीनों लोक, आवरण के सहित ब्रह्माण्ड लीन हो चुका था समुद्रों के उस महाप्लावन में, प्रलयकालीन अम्बुराशि में। तथा उस समय एकार्णव में अपने शेष की शय्या पर श्रीनारायण देव शयन कर रहे थे। उन नारायण के उदरस्थ नाभि कमल से ही ब्रह्मा विनिर्गत हुए ये वेदादि-शास्त्र वाक्य निश्चित रूप से मिथ्या नहीं हो सकते नाथ! नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, ‘नारायणाद् ब्रह्मा जायते’- यह श्रुति एवं-
‘सोते हुए श्रीनारायण देव की नाभि से सूर्य के समान प्रभावशाली एक पद्म विनिस्सृत हुआ और वहाँ उस पद्म पर ही पितामह उत्पन्न हुए।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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