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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
7. काकासुर का पराभव, औत्थानिक (करवट बदलने का) उत्सव, जन्म-नक्षत्र का उत्सव, शकटासुर-उद्धार
किंतु बालकों की इन बातों पर व्रजवासी सर्वथा विश्वास न कर सके। वे सोचते हैं - ‘यह तो सर्वथा असम्भव है। इन मृदुल शिशु-चरणों की चोट से गाड़ी उलट जाय, यह भी विश्वास करने योग्य बात है? उपनन्द की आज्ञा से शकट में चक्र-युगंधर (पहिये-हरसा) आदि पुनः लगा दिये गये। उसे सब तरह से ठीक करके अत्यन्त बलिष्ट गोपों ने खींचकर पुनः पूर्ववत् स्थापित कर दिया। अन्य सामग्रियाँ भी उस पर रख दी गयीं। इससे निवृत्त हो कर व्रजेन्द्र ने अतिशय उल्लास पूर्वक पुनः वेद मन्त्रों से परिशुद्ध, पवित्र ओषधियों से युक्त जल से ब्राह्मणों द्वारा अपने पुत्र का अभिषेक कराया। पुनः शान्ति, स्वस्त्ययन-पाठ हुए, हवन हुए। पुनः सर्वगुणशालिनी, अतिशय पयखिनी, क्षौमवस्त्र-हेममाला-पुष्प मालाओं से विभूषित अगणित गायें व्रजेश ने ब्राह्मणों को दान में दीं। ब्रजेश की सेवा से संतुष्ट हुए ब्राह्मण नन्द नन्दन पर आशीर्वाद की वर्षा करते हैं। आशीर्वाद सुन-सुन कर व्रजेश का हृदय हर्ष से नाच उठता है; क्योंकि उनके मन में यह दृढ़ विश्वास है, वेदार्थ तत्त्वज्ञ नारायण-चरणारविन्दानुरागी ब्राह्मणों के मुख से निस्सृत आशीर्वाद कभी निष्फल हो ही नहीं सकते, यह परम सत्यं हैं-
विशुद्ध प्रेम-परिभावित-चित्त गोपों ने, गोपांगनाओं ने यद्यपि शकट के पतन का, उत्कच दैत्य के इति वृत्त का कोई अनुसंधान नहीं पाया, फिर भी अन्तरिक्ष में अवस्थित देवगण जयजयकार की ध्वनि करने लगे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10। 7। 9)
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