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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
54. चेतना लौटने पर ब्रह्मा जी का अपने वाहन से उतर कर श्रीकृष्ण के पाद-पद्मों पर लुट पड़ना और उनका स्तवन करने लगना
अस्तु, व्रजेन्द्र नन्द की यह विश्व मनोहर शिशुलीला देखकर ब्रह्मा अब अपने वाहन हंस पर आसीन न रह सके। क्षणार्ध पूर्ण होने से पूर्व ही वे अपने वाहन हंस को छोड़कर वृन्दाकानन के अवनी तल पर उतर आये- वहाँ, जहाँ अतिशय कमनीय भंगिमा धारण किये श्रीकृष्णचन्द्र अवस्थित हैं। स्रष्टा धैर्य तो कब के खो चुके थे, आते ही श्रीकृष्ण के पादपद्मों में लुट पड़े। उनका वह अरुणायित पीताभ-वर्ण शरीर ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक विशाल सुवर्णदण्ड वेग से नीलसुन्दर के चरणाग्र में तृण संकुलित भूमि पर आ गिरा हो। आज इस क्षण पितामह को अनुभव हुआ, मानो उनके अनादिसंचित अभिमान का भार सदा के लिये श्रीकृष्णचन्द्र के चारु चरणों में समर्पित हो गया। अन्यथा उन्हें आशा नहीं थी कि महामहेश्वरा नन्द कुल चन्द्र के इतने निकट जाकर भूमि पर लोटने का परम दुर्लभ सौभाग्य वे पा सकेंगे। नैसर्गिक सनातन नियमों का उल्लंघन नहीं होता। देवाभिमान अवशिष्ट रहने पर साधारण प्राकृत भूमि का स्पर्श भी सम्भव नहीं- ‘न हि देवा भुवं स्पृशन्ति’ और यह तो सर्वेश्वर की चिदानन्दमयी क्रीड़ाभूमि है। इसकी एक रजःकणिका का स्पर्श पा लेने के लिये योगीन्द्र, मुनीन्द्र भी लालायित रहते हैं। देवगण तो पायेंगे ही क्या? लीला पीयूष वितरण करने के लिये आविर्भूत हुए सर्वेश्वर की यह अपार करुणा ही है जो अमर वृन्द अन्तरिक्ष की सीमा में अवस्थित होकर लीला दर्शन का अधिकार पा लेते हैं। इससे पूर्व भी पद्मयोनि गोवत्सों का हरण करने के लिये वृन्दावन के उस तृण क्षेत्र में उतरे थे गोपशिशुओं को स्थानान्तरित करने के लिये पुलिन के समीप आये थे। पर उस समय श्रीकृष्ण चरण चिह्नित कानन के रजःकण का पावन तम स्पर्श उन्होंने क्षण भर के लिये भी पा लिया हो, यह बात बिल्कुल नहीं। अपहरण की समस्त क्रिया उनके द्वारा सम्पादित हुई थी, निम्नतम आकाश में स्थित रहकर ही वनभूमि को न छूकर ही। इसीलिये इस समय श्रीकृष्णपद पंकज में दण्डवत गिरकर पितामह का रोम-रोम आनन्दविहल हो उठा। फिर तो प्राणों में एक अभूतपूर्व उत्कण्ठा जागी, तिलमात्र और आगे सरक जाने का साहस आया तथा पितामह क्रमशः अपने चारों मस्तकों को विभूषित करने वाले मुकुटों के अग्रभाग से व्रजराज नन्दन के चरण नख-चन्द्र का स्पर्श करने लगे। इस प्रकार विहल होकर इन चरण सरोजों में प्रणत होने का सुख कितना निराला है इसे एकमात्र पद्मयोनि के प्राणों ने ही अनुभव किया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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