श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
53. ब्रह्मा जी का अपने ही लोक में पराभव और वहाँ से लौटकर श्रीकृष्ण को वन में पूर्ववत उन्हीं गोपबालकों एवं गोवत्सों के साथ, जिन्हें वे चुराकर ले गये थे, खेलते देखकर आश्चर्यचकित होना; फिर उनका सम्पूर्ण गोवत्सों एवं गोपबालकों को दिव्य चतुर्भुज रूप में देखना और मूर्च्छित होकर अपने वाहन हंस की पीठ पर लुढ़क पड़ना
किंतु अब इससे अधिक देखने की सामर्थ्य चतुर्मुख में नहीं रहती। नेत्र इस चिन्मय चमत्कार से सर्वथा पूर्ण हो उठे। कर्णरन्ध्रों में दिव्यातिदिव्य स्तवन का घोष भर गया। घ्राणेन्द्रिय अप्राकृत दिव्य सुवास से पूरित हो गयी। समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ एक अभिनव आनन्द के पूर में निमग्न हो गयीं। कर्मेन्द्रियाँ आनन्दातिरकेवश स्थिर हो गयीं। मन उस दर्शन सुख में डूबकर अपनी सत्ता खो बैठा। स्रष्टा की एकादश इन्द्रियाँ ही पहले तो इस आश्चर्य दर्शन से ऐसी चंचल हुई। मानो प्रबल वेग से इनमें अवस्थित सम्पूर्ण शक्तियों का किसी ने हिण्डन कर दिया हो; पर फिर तुरंत ही ऐसी, इतनी शान्त हो गयीं कि जैसे इनका सम्पूर्ण अस्तित्व ही सदा के लिये विलीन हो गया हो। जो हो, देखते ही देखते इन अनन्त चतुर्भुज मूर्तियों के दुर्घर्ष तेज से हंस वाहन निष्प्रभ, निर्बाक, निष्पन्द हो उठे। ऐसा प्रतीत हुआ मानों अतिशय प्रीति से आराधित किसी ग्राम्य देवीमूर्ति के समीप शिशुओं की एक क्रीड़ा पुत्तलिका खेल की एक गुड़िया रख दी गयी हो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सबके द्वारा सादर उपासित इन अनन्त चतुर्भुज मूर्तियों के समक्ष पद्मयोनि सर्वथा उपेक्षित से हुए एक स्वर्णिम जड़ तुच्छ स्पन्दनहीन क्रीड़ा पुत्तलिका की भाँति ही अपने हंस के पृष्ठ देश पर ढुलक पड़े- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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