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रोहिणी नन्दन लवमात्र काल भी व्यतीत होते न होते इतनी बात सोच गये; और केवल सोच भर लिया हो, यह नहीं; इस रहस्य की ओर छोर पा लेने का संकल्प भी उनमें उदय हो गया। अब तक तो वे विचार कर रहे थे लीलानुरूप भंगिमा की चादर ओढ़ कर ही; किंतु अब उन्होंने अपनी ज्ञानमयी दृष्टि के आलोक में देखना आरम्भ किया और देख लिया स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ही तो इन असंख्य गोवत्स एवं गोपशिशुओं के रूप में अवस्थित हैं!-
- किमेतद्द्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि।
- व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्वे प्रेम वर्धते।।
- केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी।
- प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी।।
- इति संचिन्त्य दाशार्हो वत्सान् सवयसानपि।
- सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः।।[1]
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