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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
46. वन भोजन लीला का उपक्रम, वयस्य गोप-बालकों के द्वारा श्रीकृष्ण का श्रृंगार तथा श्रीकृष्ण के साथ उनकी यथेच्छ क्रीड़ा
किंतु आखिर तो वह कपि की जाति ठहरी। एक ने भूल कर दी। दर्शनलोभ से ही वह कूदकर निम्नतम शाखा पर आ बैठा। एक के नीचे उतर आने पर दूसरे के द्वारा अनुकरण अनिवार्य है ही। कपिखभाव की शोभा भी इसी में है। अस्तु, देखते ही देखते शत-शत कपिसमूह वृक्ष से नीचे आकर नृत्यपरायण श्रीकृष्णचन्द्र को, मयूर-कुल को आवृत कर लेते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र का ध्यान इस ओर नहीं जाता, वे तो नृत्य में तन्मय हो रहे हैं। किंतु मयूर भयभीत हो उठे। अपने पुच्छ का संकोच कर, नृत्य का विराम कर, सब-के-सब तन्मय हो रहे हैं। किंतु मयूर भयभीत हो उठे। अपने पुच्छ का संकोच कर, नृत्य का विराम कर, सब के सब तरु शाखाओं पर जा चढ़े। अब तो गोपशिशुओं के रोष का पार नहीं। इस दुष्ट कपिदल ने श्रीकृष्णचन्द्र का नृत्य जो बिगाड़ दिया। शिशुओं में प्रतिशोध लेने की भावना जाग्रत हुई। वे उनकी लंबी नीचे लटकती पूँछों को पकड़-पकड़कर खींचने लगे और जब वे कपि ऊपर की शाखाओं पर जा चढ़े, तब शिशु भी उनके साथ ही वृक्षों पर चढ़ गये। वे सब वानर-स्वभाव वश मुख विकृत करके जब इनकी ओर घुड़कने लगे, तब ये सब भी ठीक वैसे ही अपना मुँह फाड़कर, दाँत निकालकर, उलटा उन्हें ही धमकाकर उन्हें पुनः पकड़ लेने का प्रयास करने लगे। भयभीत कपिसमाज जब इस वृक्ष से उस वृक्ष पर कूदकर भागने लगा, तब ये निर्भीक गोपशिशु भी एक से दूसरे वृक्ष पर कूदने लगे। उन्हें बहुत दूर हटाकर ही इन सबों ने विश्राम लिया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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