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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
शिशु रूप धारी व्रजेन्द्र नन्दन को मानो अपने नारायण रूप से की गयी इसी घोषणा की स्मृति हो आयी और वे सोचने लगे-
किंतु बढ़े हुए व्रण (फोड़े) की शुद्धि भी तो नितान्त आवश्यक है, चाहे वह सिर का व्रण ही क्यों न हो। इसीलिये व्रजेन्द्र नन्दन ने निश्चय कर लिया-
यशोदा नन्दन की समस्या सुलझ गयी, पर वह सुलझी श्रीधर को उलझाने के लिये। श्रीधर ज्यों ही लपककर पालने के पास आया कि अघट-घटना-पटीयसी योगमाया की लीला आरम्भ हो गयी। वह समझ नहीं सका कि क्या रहस्य है; क्योंकि शिशु का कलेवर ज्यों-का-त्यों रहा, हाथ भी जैसे थे वैसे ही रहे, फिर भी श्रीधर का हाथ शिशु के हाथ में आ गया। दूसरे ही क्षण एक जोर का झटका लगा और श्रीधर पृथ्वी पर गिर पड़ा। अब उसे प्रतीत हुआ कि मानो इस बालक ने दोनों चरण तलों के आर पार धरती में घुसेड़ते हुए दो मोटी कीलें जड़ दी हों। कील ठोकने की वेदना का अनुभव नहीं हुआ, पर पैर धरती से ऐसे चिपक गये कि टस-से-मस नहीं हो सकते। इसके पश्चात् उसे अनुभव हुआ, शिशु ने मेरी जीभ पकड़ कर ऐंठ दी है। बस, अब बोलने की शक्ति भी सर्वथा लुप्त हो गयी। श्रीधर भयभीत नेत्रों से बालक की ओर देखने लगा। उसे दीखा - बालक उठा, निकटस्थ अन्तर्गृह में जा पहुँचा ‘वहाँ बहुत-से दधिपूर्ण भाण्ड सुरक्षित रखे हुए हैं। उनमें से कुछ भाण्डों को इसने फोड़ डाला तथा वहाँ से कुछ दही लाकर उसने उसके (श्रीधर के) मुख पर चुपड़ दिया। ब्राह्मण को अतिशय आश्चर्य है, दही का एक कण भी बालक की अँगुलियों में नहीं लगा। यह सब करके वह पूर्ववत पालने पर सो जाता है एवं सोकर रोने लगता है।’ यह देखकर श्रीधर तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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