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बालक भी साथ-साथ चले जा रहे हैं, किंतु इनका उत्साह शिथिल नहीं हो रहा है। आज प्रथम अवसर है कि प्रत्येक आभीर- शिशु के नेत्र आनन्दातिरेक से रह-रहकर छलक उठते हैं। अपने मन की बात श्रीकृष्णचन्द्र को सुनाते समय तो उनके आँखों से अश्रु का निर्झर झरने लगता है-
- बका विदारि चले ब्रज कौं हरि।
- सखा संग आनंद करत सब, अंग-अंग बन-धातु चित्र करि।।
- बनमाला पहिरावत स्यामहि, बार-बार अँकवार भरत धरि।
- कंस-निपात करौगे तुमहीं, हम जानी यह बात सही परि।।
- पुनि-पुनि कहत-धन्य नँद-जसुमति, जिनि इन कौं जनम्यौ, सो धनि धरि।
- कहत इहै सब जात सूर-प्रभू, आनँद-आँसु ढरत लोचन भरि।।
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