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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
अब व्रजेन्द्र नन्दन के सामने एक नयी समस्या उपस्थित होती है। पूतना ने तो ब्राह्मणी का छद्म ही किया था, पर श्रीधर तो ब्राह्मण कुलोत्पन्न है। ब्राह्मण का वध कैसे किया जाय? ब्राह्मण तो मेरा भी नित्य आराध्य है, यह मैं घोषित कर चुका हूँ। मानो लीला-शक्ति व्रजेन्द्र नन्दन के समक्ष यह दृश्य रख देती हैं- वैकुण्ठ धाम का नैःश्रेयस नामक वन है; कल्पतरुओं की पंक्तियाँ हैं; वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, शीत, शिशिर- इन छहों ऋतुओं की समस्त शोभा से वृक्षावली नित्य अलंकृत है; सरोवरों का निर्मल जल फूली हुई माधवी लता से परिव्याप्त है, उन पर प्रस्फुटित कुसुम समूहों से मकरन्द झर रहा है, उनके मधुगन्ध को अपने दुकूल में धारण किये मन्द समीर प्रवाहित हो रहा है; गुन-गुन करती हुई भ्रमरावली विचरण कर रही है; किसी भ्रमर का गुञ्जन इतना उच्च- पर इतना मधुर है मानो वह ललित उच्च कण्ठ से हरि-गुण-गान कर रहा हो; उसका गुञ्जन श्रवण कर कुछ क्षण के लिये पारावत, कोकिल, सारस, चक्रवाक, चातक, हंस, शुक, तीतर, मयूरों को कोलाहल शान्त हो जाता है, मानो ये पक्षी भ्रमर के द्वारा किये हुए हरि-कीर्तन का आनन्द पा कर आत्म विस्मृत हो गये हों; तुलसी की पंक्तियों से वन सर्वत्र सुशोभित है। मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलक वृक्ष), उत्पन्न (रात्रि में विकसित होने वाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुंनाग, नाग, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिन में विकसित होने वाला कमल) एवं पारिजात आदि सभी पुष्प अतिशय सौरभ शाली होने पर भी गर्व रहित हो कर तुलसी की वन्दना कर रहे हैं; क्योंकि ये पुष्प जानते हैं - श्री हरि को सबसे अधिक प्रिय तुलसी पत्र ही हैं। तुलीस के समान तपस्विनी और कौन है, जिन्हें श्री हरि अपने श्री अंग के आभूषणों में स्थान दें। नैःश्रेयस वन का आकाश वैदूर्य, मरकत, सुवर्ण रचित असंख्य विमानों से पूर्ण है, ऐसे शोभा सम्पन्न वन की सप्तम कक्षा (सातवीं डयोढ़ी) पर अनल प्रभ नित्य कुमार सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार ऋषि अवस्थित हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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