विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
16. दुर्वासा का मोह-भंग
इसी बीच में महर्षि श्रीकृष्ण के मुखविवर से बाहर आ गये। एक क्षण बाद महर्षि ने नेत्र खोलकर देखा-गोलोक नहीं, यह तो वही भरतखण्ड का व्रजपुर है। कालिन्दी निकटवर्ती वहीं सैकतपुलिन है। ठीक वही वालुकामयी क्रीडास्थली है। अभी भी श्रीकृष्ण सखाओं के साथ वैसे ही खेल रहे हैं! यहाँ मैं कुछ क्षण पहले भी आया था। संशय करने लगा था कि परात्पर श्रीकृष्ण की ऐसी चेष्टा क्यों। निश्चय कर चुका था ये परात्पर ईश्वर नही हैं। पर ठीक उसी समय श्रीकृष्णचन्द्र आये, मुझसे कुछ बोले, मेरी गोद में उठ आये, फिर उतरकर हँसने लगे, मैं इनके छोटे-से मुखविवर में प्रवेश कर गया! फिर तो.............!! मुनिवर ने अंजलि बाँध ली, सिर झुका लिया। उनकी बुद्धि में तो श्रीकृष्ण का अनन्त ऐश्वर्य प्रकाशित हो रहा है, किंतु मन एवं इन्द्रियाँ एक अभिनव रसमाधुरी से परिप्लुत हो रही हैं। दृष्टि के सामने श्रीकृष्णचन्द्र का वही क्रीडामय रूप है। वे उसी रूप को देखते हुए गुन-गुन करने लगते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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