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वंशी में स्वर भरने वाले अर्जुन एवं उसके सहायकों की भी यही दशा होती। कब वंशीवाद की क्रिया छुट गयी, यह भी वे नहीं जान पाते। अँगुलियाँ छिद्रों से लगी रहतीं, होठ भी फूँक भरने की मुद्रा में ही रहते, पर फूँक भरने की क्रियात्मक वृत्ति नृत्य परायण नन्द नन्दन में सहसा विलीन हो जाती। श्रृंगवादी बालक भी अपनी सुध-बुध खो कर ज्यों की त्यों मुद्रा में व्रजेन्द्र नन्दन की ओर देखने लग जाते। हथेली से ताल देने वाले शिशु भी विभोर हो जाते, उनके ताल का भी विराम हो जाता। श्रीदाम एवं शिशु सभासदों की वाणी भी रुद्ध हो जाती। इस प्रकार एक अद्भुत नीरवता-सी छा जाती और इसके बीच अपने ही नूपुर, कंकण एवं कटिकिंकणी के ‘रुन-झुन’ ताल पर नीलसुन्दर का नृत्य चलता रहता। उस समय अन्तरिक्षचारी देव गणों को सुन्दर अवसर प्राप्त हो जाता। वे गोप शिशुओं का रूप धारण करते, नीचे उतर आते तथा गोप रूपधारी परब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र की स्तुति करने लगते- इस भाँति जैसे मञ्च पर विराजित एक नरश्रेष्ठ का स्तवन अन्य नट कर रहे हों! इतने में शिशु-सभासदों की, वंश-श्रृंग वादकों की, तालधारियों की, गायक वर्ग की भाव समाधि टूटती और फिर साधुवाद के तुमुल रब से इस नृत्योत्सव की समाप्ति होती!
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