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एक ही समय एक ही श्रीकृष्णचन्द्र अगणित स्थानों में समान भाव से सखा निर्मित पुष्प-पल्लव-तल्प पर विश्राम कर रहे हैं, सबका मनोरथ एक साथ पूर्ण हो रहा है, सबकी प्रीति का उपहार अनन्तैश्वर्य निकेतन श्रीकृष्णचन्द्र एक साथ ही स्वीकार कर ले रहे हैं। सखाओं के प्रेमानुबन्ध ने ही उनके बाल्या वेश के दुकूल को किंचित आकर्षित-सा कर लिया है, जिससे उसके अनन्त अपरिसीम ऐश्वर्य पर विराजित वह स्वेच्छामय आवरण मानो किसी अंश में तनिक हट-सा गया है। और इसीलिये महामहेश्वर व्रजेन्द्र नन्दन अगणित आत्म प्रकाश के द्वारा यह विश्राम की लीला सम्पादन कर रहे हैं। अवश्य ही किसी भी शिशु को यह किंचिन्मात्र भी भान नहीं है कि यहाँ कोई ऐसी आश्चर्यमयी घटना घटित हो रही है। यह भान हो जाय, फिर तो आनन्द ही जाता रहे। एक साथ सबको समान आनन्द दान करने के लिये ही नीलसुन्दर की यह अभिनव योजना बनी है। अतः- ‘मैंने जिस पुष्प शय्या की रचना की, उसी पर मेरा प्राण प्यारा कन्नू विराम कर रहा है’- शिशु के प्राणों का यह अनिर्वचनीय सुख ही समाप्त हो जाय यदि उसका मन कहीं किसी अंश में स्पर्श कर ले श्रीकृष्णचन्द्र के इस ऐश्वर्य-वैभव को। इसीलिये वे शिशु तो जान नहीं सके, कदापि जान पायेंगे भी नहीं। पर सत्य तो यह है ही कि एक ही व्रजेश पुत्र एक ही समय में अगणित वृक्ष मूलों के नीचे शिशुओं द्वारा आस्तृत पुष्प शय्या पर से रहे हैं-
- तेषां प्रीत्यै तत्तदलक्षितस्तत्तत्प्रमोद्बोधितेन निजशक्तिविशेषेण बहुरूपतयैव शेत इति।[1]
- तेषां सर्वेषामेव युगपत् सौख्यसिद्धयर्थे सर्वेष्वेव तल्पेषु भगवान् शयानो जातः।[2]
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