भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
नामरूप की उपयोगिता
तामस कर्म तथा विचार दूर करने के लिए राजस और राजसों के मिटाने के लिए सात्त्विक कर्म तथा ज्ञानों का आश्रयण किया जाता है। स्वाभाविक या पाशविक कर्मों तथा ज्ञानों के मिटाने के लिए वेदशास्त्र-सम्मत कर्म और ज्ञानों का अवलम्बन करना आवश्यक होता है। वैदिकों का मत है कि नामरूप से अतीन वेदान्तवेद्य, परमतत्त्व हो स्वांशभूत प्राणियों के कल्याणार्थ अपनी अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति से परम मनोहर नामरूप को स्वीकार करते हैं। जैसे कोई परमकारुणिक चिकित्सक किसी कुपथ्यप्रिय, अदीर्घ-दर्शी अबोध शिशु को उसके अभीष्ठ कुपथ्यरूप में दिव्य महौषध का प्रदान करता है, वैसे ही मनोहर शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्धादि विषयों में आसक्त चित्त प्राणियों के मन को प्रपंचातीत भगवान के निजस्वरूप में आकर्षित करने के लिए ही अशब्द, अरूप, अस्पर्श, अव्यय का ही दिव्य शब्द, दिव्य स्पर्श, दिव्य गन्ध, दिव्य रूप सम्पन्न रूप में प्रादुर्भाव होता है। भक्तों के अभीष्ठ भिन्न स्वरूपों के विशिष्ट सौन्दर्य, माधुर्यादि लोकोक्तर गुणगणों में चित्त के आसक्त होने के अनन्तर वही अदृश्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य परमतत्त्व सुस्पष्ट रूप में व्यक्त हो जाता है। शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य, गणेश आदि वेदशास्त्र-समस्त सभी स्वरूपों में एक वही पूर्णत व्यक्त होता है। इसीलिए उनके गाहात्म्य प्रतिपादक सभी सद्ग्रन्थों में अन्तिम स्वरूप एक ही मिलता है। एक अनन्त, अखण्ड निर्विशेष, स्वप्रकाश, सच्चिदानन्द ही सर्वाघार, साक्षीरूप से अविशिष्ट रहता है। गीता में तो यहाँ तक कहा गया है कि विश्व में जो भी कोई ‘विभूतिमत ऊज्र्जिततत्त्व’ दिखलाई देता हो, उसे भी भगवान का ही रूप समझना चाहिए। आचार्यप्रवर श्री विद्यारण्य जी ने ‘पंचदशी’ में कहा है कि परमेश्वर के भिन्न स्वरूपों में विवाद नहीं करना चाहिए। जब निखिल विश्व ही परमेश्वर का स्वरूप है, तब अमुक परमेश्वर है, अमुक नहीं, ऐसे विवाद का अवसर ही कहाँ? इसीलिए अश्वत्थ, वट, हल, कुदाल तक के पूजा अपने धर्म में होती है। सभी में पूर्णतम, परमतत्त्व का ही पारमार्थिक रूप उपलब्ध हो सकता है, फिर उसका नाम या रूप चाहे जो कुछ भी हो। इसीलिए नामविशेष पर आग्रह न करके अभिज्ञों ने ‘‘कस्मे-चिन्महसे नमः कस्मै देवाय हविषा विधेम’’ इस रूप से ही परमतत्त्व का वन्दन किया है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि भगवान में नाम और रूप हैं ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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